
हरी-भरी पहाड़ियों, दरियाओं, बांस के पेड़ों और गहरी खाइयों को पार करती हुई बस जब अरुणाचल प्रदेश के बांदरदेवा में रुकी, तो लगा कि शायद यही ईटानगर होगा। सुबह के लगभग सवा चार या साढ़े चार बजे होंगे। आंखों में नींदे अभी जागी ही थीं। आंखें मसलते हुए खिड़की से बाहर देखा, तो लोग मंजन कर रहे थे। मैंने मोबाइल की घड़ी में वक्त देखा। अभी साढ़े चार ही बजे थे। मगर सूरज लुकाछिपी करता हुआ बादलों में आ बैठा था। मैं यही सोच रहा था कि अभी जयपुर में लोग रात की नींद का आनंद ले रहे होंगे, और यहां लोगों ने सुबह के दैनिक कामों को निपटा दिया। खैर, यहां सभी को अपना इनर लाइन परमिट दिखाना पड़ता है। यानी कि अरुणाचल क्यों आए। इसके लिए बाकायदा दिल्ली, गुवाहाटी से पास बनता है। खैर मेरे पास सरकारी पहचान पत्र था, इसलिए कोई मुश्किल नहीं हुई। बस रवाना हुई।
लगभग ३५ किलोमीटर तक पहाड़ियों, खाइयों, दरियाओं और बादलों की ओट में बस आगे बढ़ रही थी। पिछले चार महीने से यहां लगातार बारिस हो रही है, लिहाजा सड़कों के हालात बहुत अच्छे नहीं है, मगर बस के चालकों को इससे कोई फकॆ नहीं पड़ता। दिल्ली-जयपुर के सपाट मागॆ पर इतनी रफ्तार से बसें नहीं दौड़ती, जितनी तेजी से यहां पहाड़ी सड़कों पर बसें दौड़ती हैं। गुवाहाटी से ईटानगर का लगभग चार सौ किलोमीटर का सफर साढ़े सात घंटे में। खैर, अब तक ईटानगर आ चुका था।
छोटा सा शहर है। हरी-भरी पहाड़ियों की गोद में बसा हुआ। और पहाड़ियां चौबीसों घंटे बादलों से गुफ्तगु करती रहती हैं। जब ये दोनों बहुत खुश होते हैं, तो सारा नगर बूंदों से नहा उठता है। इसलिए यहां हर हाथ में छाता नजर आ जाएगा। मालूम नहीं चलता कि कब पहाड़ियां और बादल आपस में नाराज होकर अलग हो जाए और उनके बीच सूरज आकर जलाने लगे, और कब इकट्ठे होकर बूंद बरसाने लगे। हमने भी दो रंगीन सी छतरियां खरीद ली हैं। मगर आदत नहीं है साथ में लेने की, इसलिए खूब भीगना भी पड़ता है। छतरियां यहां ज्यादा महंगी नहीं है। मगर हां, कीमते आपको कम करवानी पड़ेंगी। चार सौ रुपए का सामान आप थोड़ा बारगेनिंग करके दौ सौ में ले सकते हैं। अच्छी बात ये कि हमारे यहां के लोगों के विपरीत कीमते करवाने और खरीदकर ले जाने के बाद ये लोग आपको गाली नहीं देते। बल्कि उतनी ही मोहब्बत से कीमते कम करते हैं। शहर थोड़ा महंगा है। इसकी वजह यह है कि यहां किसी भी वस्तु का उत्पादन नहीं होता। सारा सामान आसाम से आता है। अभी परसों की बात है, सब्जी मंडी में हमारी (यहां हमारी से तात्पयॆ मैं और मेरी पत्नी प्रेरणा से है) नजर एक फूलगोभी पर पड़ी। सोचा आज फूलगोभी बनाई जाए। एक फूल उठाया, लगभग आधा किलो का होगा। मैंने बीस रुपए का नोट निकाला। उससे पूछा- कितना हुआः बोला- सर पचास रुपए। अब तक फूल गोभी को अपने थैले में जमा कर चुके थे। इसलिए फिर से लौटाना भी अच्छा नहीं लगा। पचास का नोट थमा चुपचाप एक दूसरे का मुंह देखते हुए चले आए। आटो वाले भी पांच आठ से दस किलोमीटर के चार सौ रुपए से कम में फटकने नहीं देते। मगर सवारी आटो और खुली सीटों वाली टाटा सूमो चलती है, जिनमें किराया दस से बीस रुपए तक है।
यहां की राजनीति- दूसरे राज्यों से एकदम अलग। अपोजिशन यहां नहीं है। जो कुछ भी धरना, प्रदशॆन, विरोध, बंद, और रैलियां निकलती हैं, वे सब छात्र संगठनों की जिम्मेदारी हैं। इसके अलावा यहां कई जातियों में बंटे वनवासी बंधु हैं। उनके संगठन है। उनकी अपनी मांगे हैं।
फिर लौटता हूं। मेरा स्टेशन लगभग आठ सौ मीटर ऊंची पहाड़ी पर है। एकदम ऊंची नहीं है। मगर एक बार चढ़ने में सिर से लेकर पीठ तक पसीने में तरबतर हो जाती है। उतरना उतना ही आसान है। घर के चारों और हरियाली है। केलों के पेड़ है। बांस के पेड़ है। केलों पर इन दिनों हरे-हरे केले भी आ रहे हैं। केले के भाव यहां दजॆनों में है। यानी कि ३० रुपए से लेकर चालीस रुपए दजॆन। यहां केले पीले नहीं होते। हरे केले ही मीठे होते हैं। दूसरे तमाम फल बहुत महंगे हैं।
सबसे अच्छी बात, जो किसी भी उत्तर भारतीय को आकषिॆत करेगी, यहां आने के बाद आपको नहीं लगेगा कि आप कहीं और आ गए। संभवतया अरुणाचल प्रदेश ही पूवॆोत्तर का एकमात्र ऐसा राज्य हैं, जहां लोग आपसी बातचीत में हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। बाहरी लोगों से नहीं, बल्कि आपस में भी बात करने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। यहां अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही आधिकारिक भाषाएँ हैं। पहले लोग आपसी बातचीत के लिए असमिया इस्तेमाल करते थे। वैसे यहां हर बनवासी समूदाय की अपनी बोली है। हिंदी और अंग्रेजी के अलावा रेडियो स्टेशन से ग्यारह स्थानीय बोलियों में बुलेटिन प्रसारित होते हैं। आज का बुलेटिन यहीं खत्म करता हूं।
जय हिंद. जय अरुणाचल