Saturday, September 25, 2010

खामोश आवाज-है कोई सुनने वाला



अशांत वादियों की सैर से
तोपें, पत्थर, बंदूकें
सब शांत हो जाएंगे
सब फिर से
मुस्कराने लगेंगे,
अजानों में माना
फिर से चैन की अजान
सुन सकोगे,
मगर उन ददॆों का क्या
जो कैंपों में सिसक रहा है
बचपन से बूढ़ा हो गया
शहर-शहर भटक रहा है
शायद इसलिए कि
वह बंदूक नहीं उठाता
पत्थर नहीं फैंकता
आजादी की बात नहीं करता
है कोई कान वाला
नुमाइंदा,
धड़कते दिल वाला
मदॆ नेता,
संसद मागॆ पर
शायद नजर नहीं आता।
अजान के साथ घड़ियालों की आवाज
एक सपना ही रहेगा।

--हाल में केंद्रीय दल का कश्मीर दौरा

Thursday, September 23, 2010

सेकुलरवादी होने की दौड़ में


श्री राम का डर मूर्त रुप ले चुका था. वो दौर खुद से घृणा का था. क्योंकि भगवान राम तो त्याग के देवता हैं. उन्होंने कभी ख़ून बहाने की बात नहीं की. यहां तक कि उसका खून बहाने से पहले भी उससे बातचीत का प्रस्ताव रखा जो उनकी पत्नी को हर ले गया था.........................
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मैं तो बस इतना कहता हूं काशी और मथुरा में जब मंदिर मस्जिद साथ रह सकते हैं तो अयोध्या में क्यों नहीं...मंदिर भी बने और मस्जिद भी बने. दोनों की दीवारें लगती हों. अज़ान और घंटियां साथ साथ बजें क्योंकि ये दोनों आवाज़ें हम सभी ने एक साथ कहीं न कहीं ज़रुर सुनी होंगी. जिन्होंने नहीं सुनी उनसे मेरा वादा है कि दोनों आवाज़ें एक साथ बड़ी सुंदर लगती हैं...........................
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ये बीबीसी के एक विद्वान पत्रकार सुशील झा के ब्लाग अंश हैं.....जिसमें वे कल्पना करते हैं कि मंदिर के बगल में एक मस्जिद हो, तो भारत अजान और घंटी की आवाज सुनकर उनका दिल बाग-बाग खिल जाएगा. क्या सच में. कई लोगों ने उनके ब्लाग पर टिप्पणी की है। कुछ ने उन्हें जमकर कोसा है. कुछ सेकुलरवादियों ने उनकी तारीफ भी की है. जनाब को एक वक्त खुद से घृणा भी हुई थी. जब गुजरात दंगे हो रहे थे. कई बार तरस आता है कि इन कथित सेकुलर वादियों को ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करें.
मीडिया में, खासकर अंग्रेजी मीडिया में तो पत्रकार लोग खुद को सेकुलर साबित करने के लिए क्या-क्या कल्पना नहीं कर रहे. मंदिर के बगल में मस्जिद के लिए शायद चंदा भी इकट्ठा कर रहे हों। झा साब कहते हैं कि जब काशी, और मथुरा में मंदिर और मस्जिद साथ-साथ रह सकते हैं, तो राम जन्मभूमि अयोध्या में क्यों नहीं. खूब फरमाया झा साब ने। कोई उनसे कभी मूंछे साफकर दाढी बढ़ाने के लिए कहिए. या खतना करवाने के लिए कहिए. चलो इतना भी नहीं तो...उनके गांव में कोई मस्जिद की दीवार के सहारे मंदिर के दीवार बनाने के बारे में भी सोचिए. मगर वे ऐसा क्यों करेंगे. वे तो सेकुलरवादी है ना. उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं है. कितना अजीब है, सेकुलर कहलवाना है, तो हिंदुओं को गाली देना शुरू कर दीजिए. उनकी भावनाओं का मनचाहे ढंग से मजाक करना शुरू कर दीजिए. भगवान राम को काल्पनिक बताना शुरू कर दीजिए. आपसे बड़ा सेकुलर आपके आसपास नजर नहीं आएगा.
दुनिया जानती हैं, कि भारत देश से बड़ा सहिष्णु देश दुनिया में कहीं नहीं है.कृपया...इन कथित सेकुलरवादियों को करारा जबाव दीजिए. अपनी प्रतिक्रियाओं से, लेखों से, पत्रों से, बोलकर या कहकर.

जय भारत

अंश.......

बरगद के पेड़ से छिटकी एक टहनी
कराहती हुई बोली
क्या अब मेरा कोई अस्तित्व नहीं
क्या अब मेरी नियती खत्म हो जाना है
मुस्कराता हुआ, अपनी हवा में लटकी जड़ों को
हवा में लहराता हुआ बरगद बोला
तुम्हारे भीतर मेरा अंश है
तुम गलकर धरती के भीतर
मेरी जड़ों से चिपककर
हवा में उठकर फिर से
एक दिन देखना
मेरे सीने से लग जाओगे.
तुम मुझसे अलग कहां हो
वक्त गुजरते कितना वक्त लगता है
तुम मेरे ही अंश हो, मेरे बहुत करीब

Sunday, September 19, 2010

अपनी आंखें खोलों....कथित बुद्धिजीवियों

इन दिनों न्यूज चैनलों में एक नया चलन चल रहा है. अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए संतों को बदनाम करने वाली सनसनीखेज- रिपोटॆ- तैयार कर रहे हैं। खास बात यह कि इन सनसनीखेज रिपोटॆ को तैयार करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बातों को तोड़-मरोड़, तथ्यों के गलत ढंग से पेश कर सकते हैं। सबसे तेज जो होना है। उनका दोष नहीं है। आंखों पर सनसनी का परदा चढ़ा हुआ है। चाहे जैसे भी हो बस सनसनी चाहिए। चाहे किसी भी कीमत पर हो.
आज तक के कथित बुद्धीजीवी संपादक प्रभू चावला या नकवी को शमॆ नहीं आती कि वे देश को क्या परोस रहे हैं। क्या उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास है। अगर उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास नहीं है, तो जो समाज और देश की जिम्मेदारियां उठा रहे हैं, उस दिशा में काम कर रहे, उनकी राह में क्यों अपने विष्ठानुमा चेहरों को बिछाते हैं और उनकी राह में रोड़ा बन रहे हैं। अपनी जेबें भरने के लिए वे इस हद तक गिर सकते हैं....इसमें कोई आश्चयॆ नहीं है।
कभी किसी मौलवी का स्टिंग आपरेशन करने की हिम्मत है, नकवी साहब, प्रभू चावला साहब. एक बात जेहन में रखना, अब इस देश के समाज में सैलाब बढ़ रहा है, यह किसी को माफ नहीं करता. और जब बात समाज के गले से ऊपर तक चली जाती है, तो यह सैलाब सारे तंत्र को बिखरा देता है। इसलिए सावधान हो जाइए। अपनी टाइयां ढीली कर लीजिए.
अपनी नए संवाददाताओं को थोड़ा पढ़ाइए, इस देश का ग्यान करवाइए. यहां की परंपरा-सभ्यता के बारे में थोड़ा बताइए. पत्रकारिता करने और किसी चैनल में या किसी अखबार में दिहाड़ी की मजदूरी मिल जाने से ही आप शहंशाह नहीं हो जाते, यह भी उन्हें समझाइए. उन्हें अपने होने का एहसास करवाइए. इस देश में होने का एहसास करवाइए. भारत देश में होने का एहसास करवाइए. थोड़ा सोचने का वक्त मिले, तो खुद को भी इस देश का बेहतरीन नागरिक होने का एहसास करवाइए. यह आपके लिए ही नहीं, सभी कथित बुद्धिजीवी चैनलों के संपादकों को मेरा विनय पूवॆक आग्रह है।