Thursday, February 3, 2011

पुस्तक चर्चा ------योगेश्वर कृष्ण

हाल ही मुझे अपने एक पत्रकार मित्र के माध्यम से स्व. चमुपति एम ए शोध ग्रंथ योगेश्वर कृष्ण को पढ़ने का अवसर मिला। आज से लगभग साछ-पैंसठ साल पहले लिखी गई इस पुस्तक में कृष्ण चरित्र को विभिन्न ग्रंथों से तथ्यात्मक रूप में लेकर लिखा गया है। इसके प्रकाशन की जिम्मेदारी गाजियाबाद के समॆपण शोध संस्थान ने उठाई। भारत राष्ट के जनमानस को सदाचार की तालीम देने के लिए जरूरी है कि सत्पुरुषों के चरित्र-चित्रण के अभिव्यक्त किया जाए. इनमें दो ही व्यक्ति आदशॆ रूप है-एक श्री राम और दूसरे योगेश्वर कृष्ण। पुस्तक में कृष्ण को एक महापुरुष के रूप में चित्रित किया गया है। उनका जीवन एक आप्त पुरुष के समान है। पुस्तक में श्री कृष्ण को एक महान स्वप्न दृष्टा के रूप में बताया गया है, जिसे उन्होंने अपने जीवनकाल में भी चरिताथॆ करके दिखा दिया। जहां श्री राम ने मिथिला से लेकर लंका तक सारे भारत को एक सूत्र में आबद्ध किया तो श्री कृष्ण ने द्वारिका से लेकर सुदूर पूर्व मणिपुर तक सारे भारत को एक सूत्र में आबद्ध और एक दृढ़ केंद्र में के आधीन करके समस्त राष्ट्र को इतना बलवान और अजेय बना दिया कि महाभारत के पश्चात लगभग चार हजार साल तक अनेक विदेशी शक्तियों के बार-बार आघात के बावजूद आर्यावर्त को खंडित नहीं कर सकीं।
लेखक ने उन कवियों को आडे हाथों लिया है जिन्होंने इन महापुरुषों के अवांतर रूपों की चर्चा के लिए तो सैकड़ों ग्रंथ लिख डाले, लेकिन उनकी राष्ट्र निर्माता के रूप में, जो कि वर्तमान की आवश्यकता है की चर्चा नगण्य रूप में की है।
श्री चमुपति ने पुस्तक के लिए महाभारत के श्लोकों और अन्यान्य ग्रंथों के तथ्यों को वैज्ञानिक दृष्टि से नापतोल कर उनका विश्लेषण किया है। पुस्तक की भूमिका में ही श्री कृष्ण को
सा विभूतिरनुभावसम्पदां भूयसी तव यदायतायति
एतदूढगुरुभार भारतं वर्षमद्यं मम वर्तते वशे

माघ कवि ने शिशुपालवध में युधिष्ठिर से श्री कृष्ण को इन शब्दों से संबोधित करवाया है-भारी भार संभाले। कृष्ण काल में मगध सम्राट जरासंध भारत के एक बड़े भू-भाग का सम्राट था और और उसके साम्राज्य का आधार था पाशविक बल। वह भारत के शासन की विभिन्नता को मिटाना चाहता था। घर-घर का अपना राज्य हो और इस राज्य की अपनी शासन प्रणाली हो,यह उसे असह्य था। इस प्रयास में उसने कई कुलों और राजवंशों को नष्ट कर दिया। शिक्षा समाप्ति के बाद श्री कृष्ण ने अपने जीवन का लक्ष्य समूचे भारत को जरासंध के पंजे छुड़ाकर उसे आर्य साम्राज्य या दूसरे शब्दों में आत्मनिर्णय के मौलिक सिद्धांत पर आश्रित भारतवर्ष के छोटे-बड़े सभी प्रकार के राज्यों के संगठन, जिसे आज की राजनैतिक शब्दावली में कामनवैल्थ कह सकते हैं, की छत्र छाया में लाने का निश्चय किया। यहीं वह गुरुभार था, जिसे उठाने का बीड़ा श्री कृष्ण ने उठाया था।
पुस्तक में लेखक ने विभिन्न संवादों के माध्यम से बताया है कि श्री कृष्ण राजाओं की दिव्य सत्ता को नहीं मानते थे। वे राजा को जनता का प्रतिनिधि मानते थे। श्री कृष्ण के चरित्र में निजी और सार्वजनिक जीवन के आदर्शों का एक अद्भुत समन्वय पुस्तक में बताया गया है।
श्री चमुपति ने महाभारत कालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्था को दिलचस्प ढंग से पुस्तक में बताया है। श्री कृष्ण की कथित बाल लीलाओं को भी तथ्यात्मक ढंग से पेश किया है और बताया है कि अन्यान्य ग्रंथ लेखकों ने उन लीलाओं के अपने ढंग से मन-माफिक व्याख्या की है। पुस्तक में महाभारत कालीन युद्ध शैली, युद्ध में काम आने वाले हथियार, युद्ध के नियम और छल-बल आदि का दिलचस्प ढंग से वर्णन किया है। पुस्तक में लेखक ने उन कवियों को भी फटकार लगाई है, जिन्होंने श्री कृष्ण को रसिक रूप में प्रस्तुत कर अपने ह्रदय की विद्रुपताओं को कृष्ण पर आरोपित किया है। श्री कृष्ण का चरित्र वर्तमान भारत और विश्व की जरूरत है. आज हमें कुरुक्षेत्र के कृष्ण की आवश्यकता है, न कि बृज की कथित रसिक लीलाओं का बखान करने की। पुस्तक में कृष्णकालीन भारत का भव्य नक्शा भी दिया गया है, जो हमें आज से पांच हजार वर्ष पहले के भव्य भारत की तस्वीर पेश करता है।