Thursday, December 11, 2014

उसका छोटा कद, उसे अपना सा लगता है



घर बदला, परिवेश बदला
पड़ौसी बदले, चेहरे बदले
हवा, पानी, रोशनी का एंगल
तुलसी, अशोक, नीम, पीपल
यहां वे सब नहीं है
पंख फैलाए मोर
खिड़कियों से आती चिरचिराहट
ये भी नहीं है
चीनू, केशु, अज्जू, अनुश्री भी नहीं है
उम्र में भले बड़े थे
लेकिन पक्का याराना था
उन सभी से उसका
उनके चेहरे अभी उतरे नहीं है उसके मन से
जब तब घुमड़कर आ जाते है
तो तलाशता है जयपुर वाला घर
लेकिन उसकी तलाश
दीवारों से टकराकर रह जाती है
हां, हमारे लिए तसल्ली है
अभी एक नया हमदम मिला है उसे
कद में छोटा उम्र में उससे तीन गुना
वह उसका अन्नु भैया है
उसका छोटा कद, उसे अपना सा लगता है


Tuesday, November 18, 2014

समाजवाद, श्वान और हुमायु



निज़ामुद्दीन के  रेल स्टेशन से 
शुरू होकर पालम तक 
बस नंबर ७९४ 
बिना हॉर्न दिए मौन शांति से 
वाहनो के रैले को चीरते  हुए 
दौड़ती जा रही है 
सड़क के किनारे 
मौत का घूँट पी रहे 
दरख़्त साँस भर रहे हैं 
ऑक्सीजन कम है 
उनके फेफड़ों में 
बीच चौराहो में बची जगहों पर 
ईंट से बने चूल्हो की राख 
ठंडी हो चुकी है 
शाम की आस में 
डूबी आँखे 
साथ में श्वान 
 आगे के दोनों पैरों के बीच 
किसी विचार में मगन 
सिर को रख चिंतित हैं 
हुमायूँ और पितामह भीष्म 
दोनों चिंतित है
एक दफ़न हैं मकबरे में 
और पितामह राह दिखला रहे हैं 
अभी भी माइलस्टोन पर चिपके हुए 
लोधी एस्टेट में चमकती दुकाने 
टाइप चार, पांच और छह 
एक के ऊपर एक रखे हुए 
सरकारी कोठिया 
लगता ही नहीं पीछे 
अधूरी आस को छोड़ कर आये हैं 
 लोधी एस्टेट की बिखरी रौशनी 
का थोड़ा कतरा काश 
अधूरी  उम्मीदों की आँखों में
बिखर सकता  
खैर, ये समाजवाद की बाते हैं
जो कि  राजनैतिक है
समाजवाद 
सिर्फ राजनैतिक शब्द है
समाज से इसका वास्ता 
काम ही है   
  

Wednesday, October 22, 2014

उतर गया बुखार


रात भर वह ज्वर से अकुलाता रहा। पूरा शरीर तेज ज्वर से तप रहा था। दिवाली पर मौसम में आए अचानक बदलाव ने उसके शरीर पर भी असर कर दिया था। जैसे जैसे अंधेरा बढ़ता गया, उसके शरीर का ताप भी बढ़ता गया। धनतेरस की शाम को ज्वर की हालत में ही उसने बहुत सारी फूलझड़िया, अनार और जमीन चक्र का लुत्फ भी उठाया था। हालांकि सारे पटाखे मैंने ही चलाए थे। रात में उसके सिर से लेकर पैर तक पूरी तरह भट्टी की तरह तपने लगे। हमने सोचा सुबह किसी डाक्टर को दिखाकर दवा दिला देंगे। सुबह दफ्तर जाने के लिए सवा पांच बजे उठा। ये महाशय भी उठे। और साथ में दफ्तर जाने की जिद करने लगे। ज्वर अभी भी बना हुआ था। जिद करने लगा। ऐसी स्थिति में ज्यादा डांटा भी नहीं जा सकता। तभी श्रीमतीजी के मन में फूलझड़ी सा विचार फूटा। उन्होंने कहा, आओ, पटाखे चलाते हैं। सुबह के छह बज रहे थे। सारे पड़ोसी सो रहे थे। फूलझड़ी, अनार और जमीनचक्र क्या निकाले, उसके तो मजे हो गए। अनार की रोशनी में सारा बुखार गायब। उछल उछल कर जमीनचक्र की चिरमिराहठ में जोर जोर से चिल्लाने लगा। एक एक कर फूलझड़ी, अनार और जमीन चक्र चलते गए और उसका सारा बुखार उतर गया।