Tuesday, November 18, 2014

समाजवाद, श्वान और हुमायु



निज़ामुद्दीन के  रेल स्टेशन से 
शुरू होकर पालम तक 
बस नंबर ७९४ 
बिना हॉर्न दिए मौन शांति से 
वाहनो के रैले को चीरते  हुए 
दौड़ती जा रही है 
सड़क के किनारे 
मौत का घूँट पी रहे 
दरख़्त साँस भर रहे हैं 
ऑक्सीजन कम है 
उनके फेफड़ों में 
बीच चौराहो में बची जगहों पर 
ईंट से बने चूल्हो की राख 
ठंडी हो चुकी है 
शाम की आस में 
डूबी आँखे 
साथ में श्वान 
 आगे के दोनों पैरों के बीच 
किसी विचार में मगन 
सिर को रख चिंतित हैं 
हुमायूँ और पितामह भीष्म 
दोनों चिंतित है
एक दफ़न हैं मकबरे में 
और पितामह राह दिखला रहे हैं 
अभी भी माइलस्टोन पर चिपके हुए 
लोधी एस्टेट में चमकती दुकाने 
टाइप चार, पांच और छह 
एक के ऊपर एक रखे हुए 
सरकारी कोठिया 
लगता ही नहीं पीछे 
अधूरी आस को छोड़ कर आये हैं 
 लोधी एस्टेट की बिखरी रौशनी 
का थोड़ा कतरा काश 
अधूरी  उम्मीदों की आँखों में
बिखर सकता  
खैर, ये समाजवाद की बाते हैं
जो कि  राजनैतिक है
समाजवाद 
सिर्फ राजनैतिक शब्द है
समाज से इसका वास्ता 
काम ही है