Sunday, June 13, 2010

भोजन के बहाने हुए इकट्ठा


मैंने पिछले ब्लाग में लिखा था कि क्लास रूम स्टडी समाप्त होने के बाद अब हम लोगों को मिलने के बहाने ढूंढ़ने पड़ेंगे। मगर सफी ने एक शगुफा छोड़ा कि क्यों नहीं फेमिली गेट-टुगेदर किया जाए, जिसमें सभी परिवार वाले यानी जिनकी शादी हो चुकी है, जो उनकी पत्निया दिल्ली में रहती है, उनके लिए। फिर दुगाॆ से बात हुई। तो योजना को विस्तार देते हुए यह तय हुआ कि क्यों नहीं सभी साथी इस कायॆक्रम में शामिल हों। सभी से हिस्सेदारी ली जाए। यह हिस्सेदारी लेने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। मैंने सभी से पैसे इकट्ठे करने शुरु किए। शुरुआत की एफ-५ से। जगह तय हुई हास्टल का मैस। गणेश को मैन्यू की लिस्ट सौंपी। दिन तय हुआ ११ जून शुक्रवार शाम साढ़े छह बजे का। सात बजे साथियों ने कामन रूम में आना शुरु किया। मुझे लग रहा था कि शायद ३५ का आंकड़ा मुश्किल से पहुंचेगा। मगर आठ बजते-बजते २५ के करीब साथी और कईयों की धमॆपत्नी भी आ पहुंची थी। अब लगा कि यह आयोजन ठीक-ठाक ढंग से हो जाएगा। आनंद प्रधान सर भी आ चुके थे। मगर हमारी कुछ साथी शायद किसी वजह से नहीं आ पाई। उन वजहों का अभी तक खुलासा नहीं हुआ। अरविंदजी भी आ चुके थे। अब इंतजार हो रहा था हमारी कोसॆ डायरेक्टर शालिनी नारायण मैडम का। लगभग साढ़े नौ बजे वे आई। इसके बाद खाना शुरु हुआ तो रात साढ़े ग्यारह बजे तक चला। सभी ने इस दौरान मीडिया युनिट में अपने अटैचमेंट के अनुभवों को बांटा।
अब देखते हैं अगला बहाना क्या बनता है।

एक कविता---काबिलियत

छूटने का गम भी अजीब है
छूटने से पहले और छूटने के बाद
कई दिनों तक
रिसता रहता है
मन में यादों के तूफानों से
मगर यही नियती है
जुड़ना है
छूटना है
फिर
आगे बढ़ जाना है.
क्यूं टीस पालते हैं
यादों की
ये सताएंगी, रुलाएंगी
बेहतर है इन यादों का
यहीं पिंडदान कर दें
या आंखों के रस्ते
गंगा में बहा दें.
मगर
इतना आसान भी कहा हैं
ये तो अपेंडिक्स की तरह
चिपकी रहती हैं जेहन में
काट कर कौन फेंके
और काटना भी कौन चाहता है
इनकी रंगीनियतों से
जिंदगी कितनी हसीन होती है
ये तो वो जानता है
जिसके जेहन में
कुछ इंच जगह है
यादों को बसाने के लिए
मगर
यादों में बसने के लिए भी तो
कुछ काबिलियत चाहिए न
आजकल इसी काबिलियत को
इकट्ठा करने में जुटा हूं।