Sunday, June 13, 2010

एक कविता---काबिलियत

छूटने का गम भी अजीब है
छूटने से पहले और छूटने के बाद
कई दिनों तक
रिसता रहता है
मन में यादों के तूफानों से
मगर यही नियती है
जुड़ना है
छूटना है
फिर
आगे बढ़ जाना है.
क्यूं टीस पालते हैं
यादों की
ये सताएंगी, रुलाएंगी
बेहतर है इन यादों का
यहीं पिंडदान कर दें
या आंखों के रस्ते
गंगा में बहा दें.
मगर
इतना आसान भी कहा हैं
ये तो अपेंडिक्स की तरह
चिपकी रहती हैं जेहन में
काट कर कौन फेंके
और काटना भी कौन चाहता है
इनकी रंगीनियतों से
जिंदगी कितनी हसीन होती है
ये तो वो जानता है
जिसके जेहन में
कुछ इंच जगह है
यादों को बसाने के लिए
मगर
यादों में बसने के लिए भी तो
कुछ काबिलियत चाहिए न
आजकल इसी काबिलियत को
इकट्ठा करने में जुटा हूं।

4 comments:

पवन धीमान said...

...सुंदर अभिव्यक्ति।

अमित पुरोहित said...

यादों का तर्पण... नहीं हो सकता, काश हो पाता। आंखों के रास्‍ते गंगा में बहाना भी मुमकिन नहीं, अस्‍तु, सब शमशान वैराग्‍य। लौट आओ बंधुवर, कामयाब नहीं काबिल बन कर...

Hetprakash vyas said...

Bahut Khoob. Shabdon ke jariye apni bhavabhivyakti kamal ki rahi.
kisi ne theek hi kaha hai ki Yaden yad karne ke liye hi hoti hain.

गीतिका गोयल said...

बहुत सुन्दर!!