Sunday, April 4, 2010

उतार फेंको हर निशां, जो कलंक है देश पर


शनिवार को देश में बहस के लिए एक नया विषय मिल गया है। विषय नया इस मायने में है कि किसी राजनेता को ब्रिटिश परंपराओं को ढोने की बात याद आई। पर्यावरण को लेकर हमेशा चर्चा में रहने वाले अपने पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने ब्रिटिश कालीन गाउन उतार फेंकने की बात कही। मैं उनकी हिम्मत को दाद देता हूं। क्योंकि अब तक बड़े-बड़े नेता, राजनेता, बौद्धिक लोग भी समारोहों में इस गाउन को पहनकर फोटो खिंचवा चुके हैं। लेकिन किसी के मन को अभी तक यह बात चुभि तक नहीं। साथ में बधाई के पात्र भाजपा के मुरली मनोहर जोशी और बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार भी जिन्होंने उनके समर्थन में बातें कहीं। संभव है देश के कथित बौद्धिक वर्ग को इन बातों में बिलकुल रुचि नही हो। शायद वे जयराम रमेश, जोशी और कुमार को दकियानूस भी बता दें। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इन अनावश्यक परंपराओं को ढोते ही रहेंगे, जिनका कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है। शायद इसलिए कि हमारे पास इन बातों को सोचने का वक्त नहीं है या फिर हम इस विषय में सोचना नहीं चाहते।
भले ही इन बातों से मोटे तौर पर कोई ज्यादा फर्क नजर नहीं आता हो, लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ी के मन को हम गुलाम मानसिकता का बनाने का अपराध कर रहे हैं। मौजूदा दौर में सवाल यह उठता है कि जब तक हम अपनी युवा पीढ़ी को अपने राष्ट्र के संस्कार और यहां की उन्नत सांस्कृतिक विरासत नहीं सौपेंगे हमारी सनातन परंपराएं कैसे उन्नत होंगी। और इसके लिए देश के पढ़े-लिखे वर्ग को आगे आना पड़ेगा।
बात को आगे बढ़ाते हुए मैं टाई की बात करता हूं। अभी तक हमारे कारपोरेट सैक्टर और अब तो सरकारी क्षेत्र में भी टाई बांधना कथित जेंटलमेनशिप माना जाता है। इसका थोड़ा वैज्ञानिक परिक्षण करें। टाई क्यों....गले को हवा से बचाने के लिए। लेकिन भारत जैसै उष्ण देश में क्या यह वैज्ञानिक रूप से ठीक है। लेकिन हम अभी तक जेंटलमेन की परिभाषा में से टाई को बाहर नहीं कर सके हैं। यहां बात सिर्फ परिधान या पहनावे तक सीमित नहीं है। बात है खुद की मानसिकता की और वैचारिकता की। तब तक हम विचारों से पुष्ट नहीं होंगे, हम टाई बांधते रहेंगे।
स्वामी विवेकानन्द का उदाहरण देकर मैं विषय को समाप्त करूंगा। अमरीकी यात्रा के दौरान उनकी पोशाक संन्यासी के भगवा वस्त्र थे। रेल यात्रा के दौरान दो जेंटलमैन फिरंगियों ने उनके वस्त्र विन्यास को लेकर मजाक उड़ाया। आखिर जब स्वामीजी से नहीं रहा गया तो उन्होंने उनसे तीखे शब्दों में कहां- हममें और तुम लोगों में यही फर्क है। तुम लोग मनुष्य की पहचान उसके कपड़ों से करते हो और भारत में व्यक्ति की पहचान उसके गुणों से होती है।

1 comment:

आलोक साहिल said...

भला हम क्योंकर ऐसी परंपराओं और रूढ़ियों को ढ़ोते रहेंगे...जो सिर्फ हमारी राह में रोड़े ही खड़े करते रहे हैं...बेहतर है...समय से उनसे किनारा कर लिया जाए..

आलोक साहिल