


आखिर कश्मीरी पंडित कब तक अपने ददॆ को अपने जेहन में छुपा कर रखेंगे. अलगाववादी जिलानी पर जूता फैंकना महज एक प्रतीक है. पंडितों की सरजमीं पर अलगाव वादियों को प्रश्रय देना, ये कौनसा कानून है. पिछले बीस-बाइस सालों से दर-दर की ठोकर खा रहे कश्मीरी पंडितों के घावों पर कभी मल्हम लगाने की कोई बात नहीं होती. पूरी केंद्र सरकार कश्मीर के कथित अल्पसंख्यकों या फिर अलगाव वादियों के तुष्टिकरण में जुटी हुई है. एक बार कश्मीरी पंडितों को उनके मूल घरों में पहुंचा दीजिए, जम्मू-कश्मीर की समस्या खुद-ब-खुद हल हो जाएगी.
उनके लिए केंद्र सरकार के पास कोई पैकेज नहीं है. वे सालों से दिल्ली, राजस्थान, जम्मू समेत पूरे भारत में शरणाथिॆयों की तरह जीवन जी रहे हैं. क्या वे इस देश के नागरिक नहीं है. क्या उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है. जब भी कश्मीर समस्या का हल निकालने की बात होती है, सारे राजनैतिक दल कश्मीरी पंडितों को क्यों भूल जाते हैं. शायद इसलिए कि उनका कोई सामूहिक वोट बैंक नहीं है. वे विधानसभा या लोकसभा के चुनावों को प्रभावित नहीं कर सकते हैं. पांच लाख कश्मीरी पंडित देशभर में तितर-बितर है, उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है, मगर कुछ अलगाव वादी ताकतें सुरक्छा बलों पर पत्थर फैंक कर दिल्ली से सांसदों के दल को कश्मीर आने पर मजबूर कर देते हैं.
शायद यही सब कुछ कश्मीरी पंडितों को करने की जरूरत है. अपना हक लेने के लिए उन्हें भी अलगाव वादियों से लेकर केंद्र और राज्य सरकार से भिड़ना पड़ेगा. देश के तमाम मानवाधिकार संगठनों के आगे आकर कश्मीरी पंडितों को उनका वास्तविक हक दिलाने में मदद करनी चाहिए. अन्यथा संभव है देश के हालात आजादी के वक्त जैसे हो जाएंगे.
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