Sunday, April 12, 2015

कहानी - मौत का मेहमान

ये कहानी राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।



मौत का मेहमान
रात के करीबन दो या ढाई बजे होंगे। मेरी प्रार्थनाओं में मौत की कामना थी। पिता को तड़पते हुए देखना वह भी ऐसी हालत में जब आपके हाथ में करने के लिए कुछ भी नहीं हो, तो मौत की कामना करना ही सहज और सरल लगने लगता है। मैं भी वह करने लगा। इसे मेरा पलायनवादिता कहा जा सकता है। अतीत के अंधकार में जमा उनकी मधुर स्मृतिया मेरी आंखों में होकर उतर रही थी। भविष्य़ में उनका साथ नहीं होने की कल्पना से मन कंपित हो रहा था। विश्वास नहीं कर पा रहा था कि आने वाले दिन में वे हमारे साथ होंगे या नहीं। मन बैचेन था। अतीत, वर्तमान और भविष्य आपस में गुत्थम गुत्था होकर मन को मथ रहे थे। अतीत के सुखद अनुभवों को उस वक्त मन स्वीकारने को तैयार नहीं था। उसका वर्तमान उसके सामने था। तड़पता हुआ, बैचेन। पिछले कई साल तो नौकरी के चक्कर में पिता का साथ ही नहीं दे पाया। अब जब वक्त मिला, तो नियती दूसरा ही खेल खेलने को तैयार थी। क्या उन्हें सुख हासिल करने का कोई अधिकार नहीं है। पूरी जिंदगी उनकी फाका करते हुए निकली। अब जब उनके पुत्र योग्य होने लगे, तो वह मौत के मेहमान बन गये। मगर क्या मौत उन्हें स्वीकार करेगी या फिर उनकी जीने की इच्छा शक्ति और जीवटता के आगे ठहर जाएगी। अपनी जगह। और वापस लौट जाएगी। अपने मुकाम पर।
अपनी जीवटता से पिता ने बड़े-बड़े दुर्भाग्य के मौकों पर मौत को मुंह की मात दी थी। एक मौके पर तो उन्हें खाट से नीचे तक उतार लिया गया था। यानी श्मशान आरोहण। मेरे दुनिया में आने से कई वर्ष पहले। मगर मां के चिल्लाते सवाल- अब कौन है मेरा धणी धोरी- पर वह छाती ठोक उठ खड़े हुए- मैं जिंदा हूं अभी। लगभग मृतप्राय शरीर से उनकी जीवटता बाहर आकर बोली। मौत के सिर पर पैर रखकर। अपनों के लिए। पिता के करीबियों और मां के विश्वास से मन को हौसला तो मिलता था। मगर यकीन नहीं होता था। क्या हरा पाएगा मौत को ये आदमी। अपनों के विश्वास को कायम रखने के लिए। या शायद अपनी बाकी उम्र को जीने के लिए।   
तीन रूपए रोजाना में दिल्ली के निर्माणाधीन यमुना के पुल के सुलगते सरियों को उठाने वाले इस आदमी की जीवटता ही इसे कर्मयोगी बनाती है। किसी भी तरह का काम, कहीं भी मिला इसने किया। पेट पालना था खुद का, परिवार का। भरे-पूरे परिवार में सुबह के बाद शाम को खाने को मिलेगा, निश्चित नहीं था। तेरह साल की कच्ची उम्र से दिल्ली की खाक छानना शुरू किया तो दिल्ली से लेकर जयपुर में चाय की थड़ियों पर काम करते हुए परिवार के लिए दो जून का सामान इकट्ठा किया। संघर्ष को जीवन की नियती समझकर। मुफलिसी से भरे घर में तीसरा नंबर का होने के बावजूद अकेले के बलबूते पर भरेपूरे परिवार में मां-बाप, भाई और बहनों के शादी-परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाला यह आदमी क्या इतनी आसानी से विदा हो सकता है। यूं भी यह इतना स्थितप्रज्ञ था कि मौत का इंतजार कर सकता था। लंबे समय तक। नौ महीने तक वह अपने बेटे की मौत का इंतजार करता रहा। किसी पंडित ने उसे बताया कि उनका पहला बेटा पैदा होने के नौ महीने बाद इस दुनिया से विदा हो जाएगा, इसलिए बिना किसी को बताए और बिना अपने पुत्र से लगाव पैदा किए उसे पालता रहा। क्या यह संभव है। इसे उसका अंधविश्वास भी कहा जा सकता है। मगर हुआ ऐसा ही। ऐसा चट्टानी हृदय वाला इतनी आसानी से हार मान सकता है। मौत से हार सकता है।
मगर हालात हृदय को शिथिल कर देते हैं। और जब उम्र वानप्रस्थ काल में चल रही हो, तो यह ज्यादा संभव है। तीन साल पहले परिस्थितियों ने कुछ घंटों के लिए उन्हें पत्नी से अलग कर दिया था। वहां से पैदा हुई उनके भीतर की भावुकता ने उन्हें मन और शरीर दोनों से कमजोर बना दिया। कई सालों पहले हरिद्वार में कुंभ के मेले के दौरान परिस्थितिवश बिछुड़ी मां के दर्द ने उन्हें भीतर से बहुत खोखला कर दिया था। पिछले कई सालों से वे इतने कमजोर हो गए थे कि किसी भी बात पर भावुक हो आंखे गीली कर लेते थे। उनकी जीवटता कमजोर पड़ गई थी। शरीर थक गया था। उम्र सत्तर से ज्यादा पड़ाव पार कर चुकी थी। मगर जिम्मेदारी उठाने का संकल्प कम नहीं पड़ा था। सुबह से शाम तक जयपुर-आगरा रोड पर एक छोटे से गांव में अपनी कर्मस्थली साढ़े सात गुणा छह फीट की दुकान पर बैठकर परिवार को पालने वाले इस आदमी पर कभी निठल्ले बैठने के इल्जाम नहीं लगे। विश्वास नहीं हो रहा था पीड़ा की इस असहाय हालत में मौत उन पर हमला करेगी। ठीक ढंग से जब उन्हें पता भी नहीं चल पाएगा कि मौत क्यों उनसे गलबहिया करना चाहती है। मरने का कारण स्पष्ट होने तक तो मौत को उसका इंजतार करना चाहिए। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यह मौत का अपमान होगा।
अपने शुरूआती हमले में मौत ने कुछ कदम जरूर पीछे खींच लिए थे। ढाई-तीन क्विंटल का वजनी खड़ा पत्थर नींद के दौरान उनके सत्तर-बहत्तर साल पुराने और जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव देख चुके अचेतन मस्तिष्क पर गिरने के बावजूद जब पिता ने अपनी पीठ के बल उठकर स्वभाव वश धरती को स्पर्श कर रज माथे पर लगाई, तो मौत कुछ पल के ठिठक गई थी- ऐसी अधमरी हालत में भी इस आदमी ने अपनी आस्था को नहीं छोड़ा। क्या मौत से बचने के लिए धरती माता से आशिर्वाद चाहता है। मगर जिस तरह से रात के अंधेरे में रात के दूसरे पहर में मौत ने अवचेतन स्थिति में उन पर हमला किया था, उससे उसकी मंशा एकदम स्पष्ट थी। लेकिन अब वह पीछे खिसक इंतजार करने लगी। मां की हिम्मत ने मौत को प्रतिक्षा करने के लिए काफी पीछे खिसका दिया था। बिना एक आंसू बहाए पड़ोसियों की मदद से वह उन्हें राजधानी के सबसे बड़े अस्पताल तक ले आईं। मगर यहां कलियुगी ईश्वरी अवतारों ने निराशा के भंवर में डाल दिया- इस उम्र में सिर का जटिल आपरेशन बहुत रिस्की है। क्या आप यह रिस्क ले सकते हैं। सीधे कहें तो-क्या आप अपने पिता की मौत को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। अब सिवा आंसूओं का क्या जबाव देते उन्हें। पिता के अवचेतन मन और आंखों में घटना के पिछली शाम के बाद का कुछ भी जमा नहीं था। उनकी आंखें खुल रही थीं और बंद हो रही थीं। शायद कुछ तलाश भी रहीं थी। मगर उन्हें नहीं पता था उनके सामने कौन है। हम कौन है। वे अभी कहां हैं। उन्हें क्या हुआ है। डाक्टरी भाषा में उनकी यादों और हमारे बीच मरा हुआ खून जम गया था-ब्लड कोटिंग। मगर उनकी शारीरिक हरकतें लगभग सामान्य थीं। लेकिन सच्चाई तो डाक्टर ही जानते हैं। सरकारी अस्पतालों के ईश्वरी अवतारों की निराशा से उबरने के लिए हमने एक निजी अस्पताल का रूख किया। मगर क्या महज अस्पताल बदलने से मौत अपना पैंतरा बदलेगी।
तीन घंटे के जटिल आपरेशन और लगभग दो सप्ताह तक जीवन-मौत से जूझने के बाद पिता जब लगभग अवचेतन मस्तिष्क के पिता साथ घर आए तो लगा कि अब शायद सब कुछ जल्द ठीक हो जाएगा। मगर पहले दिन जैसे ही रात का तीसरा पहर शुरू हुआ, उनके शरीर ने अकड़ना शुरू कर दिया। उनका शरीर, मन, मस्तिष्क कुछ भी साथ नहीं दे रहा था। सांसें उखड़ रही थीं। गाल धंस चुके थे। पेट पीठ से चिपक गया था। हाथ-पैर सूखी लकड़ियों की मानिंद सूख चुके थे।  पिछले पंद्रह दिन से पानी के एकाध घूंट के अलावा उनके पेट में कुछ भी नहीं था। वे उठते, गिरते, पैर पटकते और थककर थोड़ी देर के लिए लेट जाते है। यही क्रम चलता रहा-रात के चौथे पहर तक। ऐसे जीवट पुरुष को इस हालात में बेवश होकर देखना बर्दाश्त से बाहर था। समझ नहीं पा रहे थे क्या किया जाए। उनकी अवचेतन दुनिया में हम में से अब भी कोई नहीं था। दूर-दूर तक। डाक्टर कह चुके थे आपरेशन ठीक हो गया है। अब इंतजार करो। ठीक होने का या........। जानकार लोग कहते कि छह महीने से साल भर लग जाएंगे सामान्य होने में। इस बीच कुछ भी हो सकता है। ये सोचकर चिंता और डर और भी बढ़ जाता। क्या उन्हें हर रोज ऐसे ही मर मर के जीना पड़ेगा। छह महीनों तक। साल भर तक। ऐसे जीवट पुरुष को।
मगर जीवन अपना आखरी पड़ाव पार कर ही उस पार जाता है। पिता के जीवन में अभी संभवतया कई पड़ाव बाकी थे। मां की दृढ़ आस्था और पिता के जीवट के सामने मौत नतमस्तक थी। सभी सुखद आश्चर्य में थे। डाक्टरों और लोगों की परंपरागत मान्यताओं के विरूद्ध महज सात दिनों के भीतर उनका अवचेतन मस्तिष्क वास्तविक धरातल पर आ गया। पूरी चेतना लिए। और फिर जुट गया गीता के कर्मयोग में। बिना थके। बिना रूके। पूरी जीवटता के साथ।
  

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