Wednesday, October 22, 2014

उतर गया बुखार


रात भर वह ज्वर से अकुलाता रहा। पूरा शरीर तेज ज्वर से तप रहा था। दिवाली पर मौसम में आए अचानक बदलाव ने उसके शरीर पर भी असर कर दिया था। जैसे जैसे अंधेरा बढ़ता गया, उसके शरीर का ताप भी बढ़ता गया। धनतेरस की शाम को ज्वर की हालत में ही उसने बहुत सारी फूलझड़िया, अनार और जमीन चक्र का लुत्फ भी उठाया था। हालांकि सारे पटाखे मैंने ही चलाए थे। रात में उसके सिर से लेकर पैर तक पूरी तरह भट्टी की तरह तपने लगे। हमने सोचा सुबह किसी डाक्टर को दिखाकर दवा दिला देंगे। सुबह दफ्तर जाने के लिए सवा पांच बजे उठा। ये महाशय भी उठे। और साथ में दफ्तर जाने की जिद करने लगे। ज्वर अभी भी बना हुआ था। जिद करने लगा। ऐसी स्थिति में ज्यादा डांटा भी नहीं जा सकता। तभी श्रीमतीजी के मन में फूलझड़ी सा विचार फूटा। उन्होंने कहा, आओ, पटाखे चलाते हैं। सुबह के छह बज रहे थे। सारे पड़ोसी सो रहे थे। फूलझड़ी, अनार और जमीनचक्र क्या निकाले, उसके तो मजे हो गए। अनार की रोशनी में सारा बुखार गायब। उछल उछल कर जमीनचक्र की चिरमिराहठ में जोर जोर से चिल्लाने लगा। एक एक कर फूलझड़ी, अनार और जमीन चक्र चलते गए और उसका सारा बुखार उतर गया।