Friday, April 9, 2010

आदिवासी नहीं वनवासी बंधु हैं वे


हमारा इतिहास विदेशी लोगों ने वह भी पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर लिखा है। बचाकुचा इतिहास हमारे देश के कथित बौद्धिक और वामपंथियों ने लिखा, जिन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि राम और कृष्ण इस देश में हुए या नहीं। और यहां के निवासियों के जीवन में ये महापुरुष कितना महत्व रखते हैं। अभी तक हम उसी इतिहास को ढोते चले आ रहे हैं। उनके दिए शब्दों को हम अपनी भाषा में इस्तेमाल करते हैं। ऐसा ही एक शब्द है आदिवासी, जो हमें इन दरिंदे इतिहासकारों ने दिए। मैं इन्हें दरिंदा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जो किसी समाज और देश की संस्कृति को तोड़ने या विकृत करने का काम करता है वह दरिंदा नहीं तो क्या है। हमारे लिए जंगलों में या वनों में रहने वाले बंधु आदिवासी नहीं है। आदिवासी का अर्थ होता है मूल निवासी। तो क्या बाकी लोग और कहीं से आए। इन्हें हमारे वैदिक साहित्य में अत्विका या वनवासी कहा गया है। बहुत ही साधारण सी बात है....यानी जो वनों में या जंगलों में रहते हैं वे वनवासी और जो नगर में रहते हैं नगरवासी। उन्हें क्यों वृहत हिंदु समाज से अलग करके देखा या दिखाया जा रहा है।
वे हमारे बंधु हैं। हमारा अटूट हिस्सा है। और बरसों से हमारे साथ रह रहे हैं। हां उनकी अपनी परंपराएं हैं, जो एक जगह वर्षों से रहने से बन जाती हैं। उनके अपने रीति-रिवाज है। वे अपने लोक देवताओं को मानते हैं। लेकिन उनके दिल में भगवान शिव, राम, कृष्ण, दुर्गा उसी तरह बसती है जैसे उनके लोक देवता। उनकी जड़ वैदिक धर्म से जुड़ी है। वे हमारे ही समाज के एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उन्हें हमसे अलग किया ही नहीं जा सकता। विकास की गति में जरूर वे पिछड़ गए हैं। लेकिन उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने का काम हमारा है। हमारे समाज का है। देश का है। एक साजिस तहत उन्हें हिंदु समाज से अलग करके बताया जा रहा है। महात्मा गांधी ने हमारे इन बंधुओं को गिरिजन कहकर संबोधित किया था। 19 सदी के आरंभ में इन्हें इसाई मिशनरियों ने ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया था। लेकिन अब वक्त है कि समाज के अग्रणी संगठन और बौद्धिक लोग उन्हें अपने लेखन में शामिल करें। लेकिन कथित रूप से दलित साहित्यकारों की तरह नहीं। जिन्होंने सनातन धर्म के वृहत हिस्से में बाकी समाज के प्रति अपने लेखन से नफरत घोल रखी है। इसलिए समाज के बीच कड़ी बनकर काम करना होगा।
लेकिन यह विषय मैने इसलिए यहां उठाया कि कल यानी 8 अप्रेल 2010 को शाम को मैं न्यूज चैनल पर समाचार सुन रहा था तो अचानक मेरा रिमोट लेमन टीवी पर रुक गया। वहां छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के द्वारा सताए वनवासियों पर कोई स्टोरी चलाई जा रही थी। खास बात यह थी इस स्टोरी में बार-बार उन लोगों को वनवासी कह कर संबोधित किया जा रहा था। यह सुनकर अच्छा लगा कि न्यूज चैनलों में अभी तक शब्दों को लेकर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। काश सभी चैनल वाले ऐसा सोचें। अभी कुछ दिन पहले एक चैनल पर एक स्टोरी बताई जा रही थी जिसमें आदिमानव होमोसेपियंस को आधुनिक मानव का पूर्वज बताकर हर बात कही जा रही थी। जब हम मानते हैं कि हमारे पूर्वज आदिमानव नहीं है। यह सिर्फ एक सिध्दांत है, जिसे पश्चिम ने दिया है। हम उस सिध्दांत को ही सच मानकर उसके आधार खुद को क्यों साबित करें।
चैनल पर बोला गया हर शब्द बहुत कीमती होता है और उसके गहन अर्थ होते हैं. कृपया अपनी स्क्रिप्ट को आखिरी रूप देने से पहले उसके हर पहलू पर गौर करें।
नमस्कार।

बेगानी शादी में अब्दुल्ला हो रहे हैं दीवाने

मीडिया क्या बेचता है...किसी से छिपा नहीं है। मुझे अफसोस हो रहा है कि जब सानिया शोएब के साथ शादी रचाकर पाकिस्तान या दुबई चली जाएगी तो बेचारे हमारे न्यूज चैनल वाले क्या दिखाएंगे। मैं तो अभी से यह सोच-सोचकर तनाव में आया जा रहा हूं। शोएब-सानिया मामले में शोएब के प्रेस वार्ता को चार दिन होने के आए मगर अभी तक चैनल वाले बंधुओं ने सानिया के घर के सामने से अपने तंबू हटाए नहीं है। शुद्ध दुकान चलाने वाले इन चैनलों को क्या कहें, गाय का बछड़ा देखा है, जब उसे खोल दिया जाता है तो कैसे इधर-उधर भागता फिरता है..
इधर दंतेवाड़ा की दिल दहला देने वाली घटना हुई, मगर उनका दिल है कि सानिया से अभी तक भरा नहीं है। 70 से ज्यादा देश के जवान नक्सलियों की हिंसा के शिकार हो गए, पूरा देश इस चिंता में है कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए, क्या हल ढूंढ़ा जाए कि कथित नक्सली बंधु फिर से मुख्यधारा में शामिल हो जाए,मगर इन बेशर्म् इलेक्ट्रोनिक चैनल वालों के लिए अभी भी प्राथमिकता सानिया हैं। कल यानी 8 अप्रेल 2010 को भूत-प्रेतों को चैनल पर बेचने वाले इंडिया टीवी ने तो कमाल ही कर दिया। शोएब मलिक के कुनबे से दर्शकों को परिचय करवाने का लम्बा कार्यक्रम बना डाला। उसके मां-बाप, भाई, बहन, जीजा, दादी और पता नहीं कौन कौन...अपने लाड़ले की ताऱीफ कर रहे हैं। समझ में नहीं आता ये चैनल कब अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी समझेंगे। लगभग हर चैनल हर शाम प्राइम टाइम में आधा से एक घंटे का कार्यक्रम सानिया-शोएब नाटक को समर्पित रहता है। समझ में नहीं आता कि इस बेगानी शादी में अब्दुल्ला क्यों दीवाने हो रहे हैं।

Sunday, April 4, 2010

उतार फेंको हर निशां, जो कलंक है देश पर


शनिवार को देश में बहस के लिए एक नया विषय मिल गया है। विषय नया इस मायने में है कि किसी राजनेता को ब्रिटिश परंपराओं को ढोने की बात याद आई। पर्यावरण को लेकर हमेशा चर्चा में रहने वाले अपने पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने ब्रिटिश कालीन गाउन उतार फेंकने की बात कही। मैं उनकी हिम्मत को दाद देता हूं। क्योंकि अब तक बड़े-बड़े नेता, राजनेता, बौद्धिक लोग भी समारोहों में इस गाउन को पहनकर फोटो खिंचवा चुके हैं। लेकिन किसी के मन को अभी तक यह बात चुभि तक नहीं। साथ में बधाई के पात्र भाजपा के मुरली मनोहर जोशी और बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार भी जिन्होंने उनके समर्थन में बातें कहीं। संभव है देश के कथित बौद्धिक वर्ग को इन बातों में बिलकुल रुचि नही हो। शायद वे जयराम रमेश, जोशी और कुमार को दकियानूस भी बता दें। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इन अनावश्यक परंपराओं को ढोते ही रहेंगे, जिनका कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है। शायद इसलिए कि हमारे पास इन बातों को सोचने का वक्त नहीं है या फिर हम इस विषय में सोचना नहीं चाहते।
भले ही इन बातों से मोटे तौर पर कोई ज्यादा फर्क नजर नहीं आता हो, लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ी के मन को हम गुलाम मानसिकता का बनाने का अपराध कर रहे हैं। मौजूदा दौर में सवाल यह उठता है कि जब तक हम अपनी युवा पीढ़ी को अपने राष्ट्र के संस्कार और यहां की उन्नत सांस्कृतिक विरासत नहीं सौपेंगे हमारी सनातन परंपराएं कैसे उन्नत होंगी। और इसके लिए देश के पढ़े-लिखे वर्ग को आगे आना पड़ेगा।
बात को आगे बढ़ाते हुए मैं टाई की बात करता हूं। अभी तक हमारे कारपोरेट सैक्टर और अब तो सरकारी क्षेत्र में भी टाई बांधना कथित जेंटलमेनशिप माना जाता है। इसका थोड़ा वैज्ञानिक परिक्षण करें। टाई क्यों....गले को हवा से बचाने के लिए। लेकिन भारत जैसै उष्ण देश में क्या यह वैज्ञानिक रूप से ठीक है। लेकिन हम अभी तक जेंटलमेन की परिभाषा में से टाई को बाहर नहीं कर सके हैं। यहां बात सिर्फ परिधान या पहनावे तक सीमित नहीं है। बात है खुद की मानसिकता की और वैचारिकता की। तब तक हम विचारों से पुष्ट नहीं होंगे, हम टाई बांधते रहेंगे।
स्वामी विवेकानन्द का उदाहरण देकर मैं विषय को समाप्त करूंगा। अमरीकी यात्रा के दौरान उनकी पोशाक संन्यासी के भगवा वस्त्र थे। रेल यात्रा के दौरान दो जेंटलमैन फिरंगियों ने उनके वस्त्र विन्यास को लेकर मजाक उड़ाया। आखिर जब स्वामीजी से नहीं रहा गया तो उन्होंने उनसे तीखे शब्दों में कहां- हममें और तुम लोगों में यही फर्क है। तुम लोग मनुष्य की पहचान उसके कपड़ों से करते हो और भारत में व्यक्ति की पहचान उसके गुणों से होती है।