Friday, October 4, 2019

पहाड़ी सुंदरी गुस्से में हैं

विभोम स्वर के अक्तूबर-दिसंबर अंक में यात्रा वृतांत



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Saturday, September 21, 2019


यात्रा/ मसूरी/ पर्यावरणीय चिंता
शैल सुंदरी गुस्से में है!

जिस तेजी से पहाड़ों की रानी मसूरी अपना रंग, ढंग और रूप बदल रही है, लगता है आने वाले कुछ सालों में पहाड़ों की रानी के हुस्न से मोहब्बत करने वाले इससे मुंह मोड़ लेंगे। और यह खुद भी लोगों से किनारा कर लेगी। पहली बार मसूरी साल 2015 में आना हुआ। उसके बाद अब यानी वर्ष 2019 के जुलाई महीने में फिर से यहां आने का अवसर मिला। मगर इन चार सालों में मसूरी ने जिस तेजी से नई शक्ल धारण की है, वह प्रकृति को प्यार करने वाले पर्यटकों के लिए किसी सदमे से कम नहीं है। पहाड़ों की इस सुंदरी की वादियों की गंध को महसूस करने के लिए माल रोड पर कदम रखते ही डीजल की गाड़ियों से निकलने वाला गंध का चकराने वाला भभका आपका स्वागत करता है। यह पहाड़ी सुंदरी हर रोज न जाने कितनी बार इस गंध से रूबरू होती है। लगभग दो किलोमीटर लंबे माल रोड पर कदम बड़ी सावधानी से इसलिए रखने पड़ते हैं, कि कहीं पीछे से आ रही कोई गाड़ी आपके पैरों को कुचलती हुई न गुजर जाए।
माल रोड, हर पर्वतीय पर्यटन स्थल की यूएसपी यानी विशेषता होती है। यानी उस पर्वतीय स्थान को जानने, समझने, महसूस करने और यादों में बसाने के लिए ही इस रोड की खोज की जाती है। देश के हर पर्वतीय पर्यटन स्थल पर आपको माल रोड मिलेगा। और वही उस स्थल की पहचान भी होता है। कह सकते हैं वह उसकी आत्मा होता है। नैनीताल हो या फिर शिमला हर जगह माल रोड उस स्थल का सबसे आकर्षक बिंदु होता है। मगर, पिछले कुछ वर्षों में व्यवसायीकरण की खुली होड़ ने इन पर्वतीय पर्यटक स्थलों को बुरी तरह नुकसान पहुंचाया है। इसके पीछे के खेल को समझना है, तो अलग से चर्चा करनी पड़ेगी।
चिंता सिर्फ यहां आने वाले पर्यटकों को अच्छा माहौल मिले, इतनी भर नहीं है। पर्यटक तो अच्छा वातावरण और माहौल के लिए किसी दूसरी जगह को भी तलाश लेंगे। लेकिन प्रकृति के साथ हम जो व्यवहार कर रहे हैं, लगता है हम उसके प्रतिशोध से लगभग बेखबर है। हम भूल जाते हैं केदारनाथ त्रासदी। हजारों लोगों की मौत। विस्थापन। विध्वंस। प्रकृति का रौद्र स्वरूप। हम भूल जाते हैं कि हर साल बढ़ती गर्मी, पिघलते ग्लैशियर, सूखती नदियां, तालाब, पोखर, कटते जंगल और बढ़ते प्रदूषण से मुकाबला करने के लिए हमारी आने वाली पीढ़ियों के पास आने वाले सालों में पास कोई साधन नहीं बचेंगे। हम उन्हें क्या धरोहर सौंपकर जाएंगे? यह बड़ा सवाल है। जिसका जबाव खोजने की चिंता कहीं नजर नहीं आती।
फिर से मसूरी पर लौटता हूं। दो किलोमीटर लंबे माल रोड पर लगभग एक घंटे की चहल कदमी में लगातार डेढ सौ दो सौ मीटर लंबा एक भी पैच ऐसा नजर नहीं आता जहां से पहाड़ों की सुंदरी को ताजी सांस के साथ महसूस किया जा सकते। माल रोड के दायी और बायी, दोनों ओर पहाड़ों पर, उन्हें खोदकर, उन्हें गहरा कर, उनके ऊपर, उन्हें हटाकर और न जाने कैसे-कैसे तरीकों से आलीशाल होटल, रेस्त्रां, पार्किंग उगा डाले गए हैं। यह सही है कि हमने सुख सुविधाएं विकसित करने में कोई कमी नहीं रखी है। और स्थानीय निकाय, या सरकार को इससे भरपूर राजस्व भी मिलता होगा। आने वाला पर्यटक यहां एक दिन की बजाय दो दिन ठहरता होगा। मगर, क्या इस मसूरी के कंधों में इतना सब झेलने की वाकई में ताकत हैदूसरी ओर माल रोड पर पूरे दो किलोमीटर की लंबाई में हजारों की संख्या में छोटे-बड़े-बहुत बड़े वाहन दोनों दिशाओं से एक के पीछे एक लगभग धकियाते हुए रैंगते हुए आगे बढ़ते नजर आते हैं। संभव है इनमें बहुत से वाहन स्थानीय भी होंगे। चिंता की बात यह है कि क्या इस छोटी सी पहाड़ी सुंदरी के सीने में इतना सब कुछ सहने की क्षमता है! इतना कार्बन। इतनी गर्माहट।  कहीं ऐसा नहीं हो कि वह बिफर पड़े। और किसी दिन इंद्र देवता के सहयोग से अपना रौद्र और वीभत्स रूप धारण कर लें। उस वक्त हमारे पास बचने के कोई भी साधन काम न आएंगे।
चूंकी हिमालयन रैंज की पहाड़ियां अभी भी अपने अंतिम रूप में नहीं पहुंची हैं। इसे आसान शब्दों में कहें तो यहां के पहाड़ अभी तक उतने पक्के नहीं है, जितने की अरावली या दक्षिण की दूसरी पर्वतमालाएं। यहां की पहाड़ियां अभी तक कच्ची हैं। इसलिए हर बारिश में पहाड़ियां ढह जाती है। इसे अंग्रेजी लैंड स्लाइड कहते हैं, जो बारिश के दिनों में यहां और समूचे उत्तर पूर्व में आम बात है। इसलिए इन पर पक्का निर्माण कार्य बहुत अनुशासन के साथ करने की जरूरत होती है। पहाड़ों पर रहने वाले लोग जानते हैं कि पहाड़ों का सम्मान कैसे किया जाता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में पहाड़ों और खासकर हिमालयन रैंज की पहाड़ियों का सम्मान व्यवसायीकरण की आंधी में खत्म सा हो गया है। पर्यावरणविद मानते हैं और चेताते भी हैं कि जिस तेजी से मसूरी सहित हिमालयी पर्वतमालाओं के पर्वतीय कस्बों में में पक्का निर्माण कार्य हो रहा है, वह यहां के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए बिलकुल अनूकूल नहीं है। आवश्यकता से अधिक वाहन का रेलमपेल और उससे निकलने वाला कार्बन और गर्मी इस खूबसूरत पहाड़ी की सेहत के लिए बहुत खतरनाक है। एक और तथ्य जो यहां नजर आता है वह है यहां के ड्रेनेज सिस्टम में फंसा प्लास्टिक, बोटल और कचरा। हमें फिर से केदारनाथ की त्रासदी अपने जेहन में रखनी चाहिए। कहने को तो एमडीएमसी यानी मसूरी देहरादून म्युनिसीपल कार्पोरेशन के तहत इस छोटे पहाड़ी कस्बे का ख्याल रखा जाता है। लेकिन सच्चाई यह कि आपको पावभर भी जामुन लेने हैं तो वह भी यहां प्लास्टिक की थैली में बहुत आसानी से और खुलेआम मिल जाएगा। हम अनुमान लगा सकते हैं कि दिन भर में कितना प्लास्टिक कचरा यहां एकत्र होता होगा। इस मामले में कुछ पर्वतीय स्थलों के प्रशासन ने अच्छा अनुशासन दिखाया है। और वहां प्लास्टिक का इस्तेमाल पूरी तरह प्रतिबंध किया है। क्या कम से कम अपने पर्वतीय धरोहरों को जिंदा रखने के लिए इस तरह का अनुशासन हम यहां लागू कर सकते हैं?
अब थोड़ी चर्चा, मसूरी के उन पहलुओं की जो प्रकृति के अलावा इसके इतिहास को भी जानने में दिलचस्पी रखते हैं। इसका लिखित इतिहास पढ़े बिना भी माल रोड से गुजरते वक्त स्थान स्थान पर ऊंचे स्थान पर एमडीएमसी की ओर से शीशे में बंद इस कस्बें की कुछ धरोहरों से यहां के इतिहास को जाना और महसूस किया जा सकता है। अंग्रेजी शासनकाल में उन्नीसवीं सदी के आखिर में इस कस्बे को पर्वतीय स्थल के रूप में पहचान मिली। उस वक्त यहां आने वाले लोगों के सामने सबसे बड़ी समस्या आती थी आवागमन के साधनों की। 1890 में एक भारतीय व्यापारी के दिमाग में इस समस्या के समाधान के लिए एक हाथ से खींचे जाने वाले रिक्शे का विचार आया। तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने इसके लिए उसे तत्काल अनुमति दे दी थी। ब्रिटिश हुकुमत ने उसे इसके लिए चार्लीविले होटल में किराए पर एक वर्कशॉप लगाने की भी इजाजत दे दी थी। उस वक्त की चार्लीविले होटल आज का लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी यानी नौकरशाहों को प्रशिक्षण देने का स्थल है। यह हाथ से खींचे जाने वाला रिक्शा जल्द ही यहां आवागमन का प्रमुख साधन बन गया था। बल्कि जल्द ही इसने स्टेटस सिंबल के तौर पर पहचान कायम कर ली। इन हाथ रिक्शाओं को खींचने वाले मजबूत युवा व्यक्ति को झंपनीज कहा जाता था। उनके लिए एक निर्धारित ड्रेस होती थी। शुरुआत में दो सीटों वाले रिक्शा को खींचने के लिए ब्रिटिश सरकार ने पांच झंपनीज को नियुक्त किया था। इसी तरह एक सीट वाले रिक्शा के लिए पांच लोगों को लगाया था। 1903 आते आते मसूरी के माल रोड पर तीन सौ से ज्यादा हाथ रिक्शा नजर आने लगे थे। माल रोड पर एक हाथ रिक्शा अभी भी बंद शीशे में रखा है, जो उस दौर को वर्तमान समय में ले आता है।
एमडीएमसी के लगाए ऐतिहासिक धरोहरों में ही यहां के सिनेमा इतिहास का भी पता चलता है। मसूरी में पहला सिनेमा हॉल कब शुरु हुआ होगा? सोचिए। यह 1912 का वक्त था। पिक्चर पैलेस के नाम से 1912 में मसूरी में पहला सिनेमा हॉल शुरू हुआ था। उसके बाद 1920 और 1930 के बीच यहां कई और भी सिनेमा घर खुले। इनमें रोक्सी सिनमा, रियाल्टो, केपिटल, मैजेस्टिक, बसंत और जुबली सिनेमा घर शुरु हुए। ये सभी माल रोड पर मौजूद थे और इनमें वर्षों तक बॉलीवुड और हॉलीवुड फिल्में लोग देखते रहे हैं। पिक्चर पैलेस उत्तर भारत का पहला ऐसा सिनमाघर था, जो बिजली से चलता था। इसे इलेक्ट्रिक पिक्चर पैलेस भी कहा जाता था। एमडीएमसी ने माल रोड के किनारे पर शीशे में बंदकर मैजेस्टिक सिनेमा का एक प्रोजेक्टर का प्रदर्शन कर रखा है, जो मसूरी के सिनेमा के खुशनुमा दिनों की याद ताजा करता है।  
मसूरी की जीवंत किंवदंती मशहूर अंग्रेजी कथाकार रस्किन बॉन्ड की चर्चा के बिना मसूरी की यात्रा अधूरी है। लगभग 85 साल के रस्किन अभी भी सक्रिय है। यहां गोद लिए परिवार के साथ रहते हैं। वे माल रोड पर मौजूद कैंब्रिज बुक डिपो पर हर शनिवार दोपहर तीन से चार के बीच अपने चाहने वालों और पाठकों से मिलते हैं। लोग उनके साथ फोटो खिंचवाते हैं। उनके हस्ताक्षर वाली पुस्तकें लेते हैं। रस्किन से बेहतर मसूरी को कौन जानता होगा। उन्होंने अपने जीवन के पचपन साठ साल यहां गुजारे हैं। एक साक्षात्कार में चिंता जताते हुए कहते हैं, जिनके पास ठीक ठाक पैसा होता है, वे अब मसूरी को हेय नजरों से देखते हैं। वे लोग मसूरी या शिमला आने की बजाय मलेशिया या हांगकांग जाना पसंद करते हैं। सवाल है क्यों?
ऐतिहासिक धरोहरों और पुरानी यादों के नोस्टेल्जिया से बाहर आकर फिर से तीसरे पैराग्राफ की आखिरी पंक्ति से शुरू करता हुआ रस्किन बॉन्ड की चिंता को आगे बढ़ाता हूं। रस्किन बॉन्ड की चिंताओं आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ दशकों में हमने हिमालयी सुंदरता के साथ किस तरह पशुवत व्यवहार किया है। और लगातार कर रहे हैं। वक्त अब भी है। हम अब भी हालात को नियंत्रण में ला सकते हैं। बस, मन और मस्तिष्क में से हिमालयी सुंदरता के आर्थिक शोषण के खयाल को हमेशा के लिए निकालना होगा। इनके व्यवसायीकरण में अनुशासन लाना होगा। और हां, यह भी जेहन में खयाल रखना होगा कि अगर हम ऐसा नहीं कर सके तो यह हिमालयी सुंदरी जब कभी अपने पशुवत व्यवहार पर उतरेगी तो दूर दूर तक मनुष्य और मानवता के चिह्न नजर नहीं आएंगे।  

(यात्रा 16


जुलाई 2019)