Sunday, October 25, 2015

फणीश्वरनाथ रेणु का मैला आंचल:एक यात्रा


फणीश्वरनाथ रेणु के मैले आंचल, जोगबनी की यात्रा का हाल। सितंबर महीने (2015) के शुरुआती हफ्ते मे घूमने, फिरने के मकसद से जोगबनी जाना हुआ। यहां हमारे ब्रदर इन ला प्रणेशजी कस्टम में सहायक आयुक्त के तौर पर नियुक्त हैं। इन्हीं के सौजन्य से यह यात्रा हुई। उस दौरान जोगबनी में जो कुछ देखा, सुना और महसूस किया, उसे आलेख के रूप में तैयार किया, जिसे राजस्थान के प्रमुख हिंदी दैनिक ने अपनी "हम लोग" अंक में प्रमुख स्थान दिया। यहां लिंक भी दिया है, चाहे तो लिंक के जरिेए पढ़ा जा सकता है।

http://dailynewsnetwork.epapr.in/c/7005788



Friday, October 16, 2015

संदर्भ- साहित्यकारों द्वारा सम्मान वापसी


विरोध के लिए घटनाएं मत चुनिए
-मुरारी गुप्ता
"घटनाओं को नंगी आंखों से देखिए
हरा, नीला, पीला चश्मा उतार फैंकिए
आपके लिए यह उचित नहीं
आपके निरपेक्ष भाव में ही
इस देश की उन्नती है।"

युवा कवि आनंद की ये खूबसूरत पंक्तियां हमारे बुद्धिजीवियों, लेखकों और साहित्यकारों के लिए सबक साबित हो सकती हैं। लेकिन निरपेक्षता का भाव पांच दशक पहले ही खत्म कर दिया गया था।
चलिए बहुत ज्यादा पीछे नहीं जाते। आपातकाल से शुरू करते हैं। देश में घोर आपातकाल का समय था। लोकतंत्र का गला घोंटा जा रहा था। लगभग इक्कीस महीने तक देश में घटाघोंप अंधेरा रहा। लोगों को लोकतांत्रिक अधिकारों को छीन लिया गया। पूरा इंटरनेट खंगाल लिया। उस समय के सर्वाधिक चर्चित लेखकों में से किसी ने भी उस वक्त अपना सम्मान लौटाना उचित नहीं समझा। इससे भी आगे आज जो ख्यातनाम साहित्यकार अपने सम्मानों का पूरा भोग कर लौटा रहे हैं, उनका भी कोई बयान या विरोध उस समय किसी अखबार, पत्र-पत्रिका में दर्ज नजर नहीं आता। आगे बढ़ते हैं। साल 1984, सिखों के खिलाफ अभियान चलाया गया। सैकड़ों की संख्या में सिखों को मार दिया गया। कितने अफसोस की बात है कि आज सम्मान लौटा कर अखबारों और टीवी चैनलों की सुर्खियां बन रहे इन लेखकों, साहित्यकारों की आत्मा पर तब क्या पत्थर पड़ चुके थे। वे सोए रहे और बौद्धिक जुगाली में मस्त रहे। साहित्य अकादमी तो तब भी थी। सम्मान तब भी दिए जा रहे थे। लेकिन शायद तब इन साहित्यकारों तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान का यह फैसला उचित लगा होगा। चलिए फिर आगे बढ़ते हैं।
भोपाल में युनियन कार्बाइड प्लांट के गैस रिसाव की घटना तो याद होगी। यह भी याद होगा कि इस घटना में भोपाल में लाखों की संख्या में सोते-सोते बेकसूर मारे गए। हमारे प्रिय लेखक थोड़ा दिमाग पर जोर डालेंगे तो उन्हें इस घटना के शिकार मृत बच्चे की वह चर्चित तस्वीर जरूर याद होगी जिसमें उसकी देह कंकर-मिट्टी में दबी है और सूनी आंखें न्याय की ओर देख रही हैं। फिर तो यह भी याद होगा कि इस घटना के प्रमुख जिम्मेदार वारेन एंडरसन थे। तब तो हमारे प्यारे साहित्यकारों को यह जरूर याद होगा कि किस तरह एंडरसन को सजा दिलाने की बजाय उसे सत्ता प्रतिष्ठान ने हमारे प्रिय साहित्यकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों की आंखों के सामने से चोरी छिपे रातों-रात भगा दिया गया। साल-डेढ़ साल पहले उस एंडरसन ने अपने देश में दीर्घायु जीवन के बाद चैन की मौत पाई। दुर्भाग्यवश उस वक्त भी हमारे प्रिय साहित्यकारों में से किसी को भी यह याद ही नहीं रहा कि इसके विरोध में सम्मान भी लौटाए जा सकते हैं। संयोग देखिए कि उसी वक्त भोपाल में आयोजित विश्व कविता सम्मेलन में इन दिनों अपना सम्मान लौटा कर मुक्त हो चुके एक महान कवि और साहित्यकार ने कहा था- मुर्दों के साथ मरा नहीं जाता। ऐसी महान सोच के साहित्यकार सामूहिक रूप से देश के सम्मान का अपमान करें, तो उसे क्या कहा जाएं।
हमारे देश के इन महान साहित्यकारों को जम्मू, पंजाब, दिल्ली और देश के कोने-कोने में रोजी रोटी के लिए बसे कश्मीरी पंडितों की पीड़ा नजर नहीं आती। उनकी नई पीढ़ियां अपने घरों का रास्ता भूल चुकी है। उन मनों पर क्या गुजरती होगी, जिन्हें बंदूक की नोक पर यह कहकर अपने घरों से भगा दिया गया हो कि अपनी बीबी और जवान लड़कियों को छोड़कर यहां से दफा हो जाओ। पूरे पच्चीस साल हो गए उन्हें अपना घर, मोहल्ला, बस्ती छोड़े हुए। उनकी चार-पांच मंजिले घर खंडहर हो आज भी अपने मालिकों का इंजतार कर रहे हैं। लेकिन यहां बसे मलिक उन्हें आने देंगे, मुमकिन नहीं है। लेकिन यह तो मुमकिन था कि इस घटना के विरोध दो-पांच साहित्यकार, लेखक अपना सम्मान ही लौटा देते। और इन मलिकों का विरोध करते। विरोध तो छोड़िए। इन्हें मौका मिले तो ये अब भी उनकी तारीफ कर देते हैं। देश के बत्तीस हजार से ज्यादा परिवार रातों रात अपने घर से बेदखल कर दिए गए। और इन साहित्यकारों के सम्मानों पर जूं तक नहीं रेंगी। शायद इसलिए कि इसमें कोई मजेदार सेकुलरिज्म नहीं था। जिस घटना में थोड़ा बहुत भी सेकुलरिज्म नहीं, सम्मान लौटाने में वो आनंद कहा। देश के मीडिया की सुर्खियों में आने का कोई चांस नहीं। चलिए और आगे बढ़ते हैं। धारा विशेष के साहित्यकारों का प्रसिद्ध शगल। बाबरी मस्जिद। गुजरात दंगे।
गोधरा की घटना के बाद गुजरात दंगे हुए। इन दंगों में हजारों की संख्या में लोग मारे गए। दोनों समुदायों के लोग मारे गए। इस बड़ी घटना को भी बुद्धीजीवी जज्ब कर गए। उन्हें अपना सम्मान लौटाने का ख्याल उस वक्त भी नहीं आया। और तो और बाबरी मस्जिद ढहाने के वक्त भी इन्हें सम्मान लौटाने की फुर्सत नहीं मिली।
जो जीवन भर दूसरे पक्ष के लेखन को लेकर असहिष्णु रहे वे आज असहिष्णुता को लेकर सवाल खड़ा कर रहे हैं। लोकतंत्र के पक्ष में इनकी भावना भी संदेह के घेरे में हैं। वर्तमान प्रधानमंत्री को लेकर बुद्धीजीवियों, जिसमें आज सम्मान लौटाने वाले भी कुछ साहित्यकार शामिल है, ने बाकायदा एक प्रेस विज्ञप्ति जारी कर उन्हें वोट नहीं देने की अपील की। लोकतंत्र में उनकी आस्था को इससे समझा जा सकता है।
साहित्यकारों के सम्मान वापसी की एक के बाद एक घटनाओं से इनके पीछे क्या मकसद हो सकता है? किसी के लिए समझना मुश्किल नहीं है। सोचिए जो घटनाएं राज्य के दायरे में हैं, जिन पर राज्य सरकारों की कार्यवाही करनी है, उनके लिए बुद्धीजीवी केंद्र को सिर्फ इसलिए जिम्मेदार ठहरा रहे है, कि उन्हें सरकार के एक खास व्यक्ति से बेइंतहा असहिष्णुता है। क्या लोकतंत्र का यही तकाजा है। घोर आश्चर्य है कि जिस घटना को लेकर इतना हो हल्ला हुआ, उसके सूबे के मुखिया के खिलाफ बुद्धीजिवियों के मुंह से उफ तक नहीं निकला। जैसे देश की हर सांप्रदायिक घटना के पीछे सिर्फ केंद्र की मौजूदा सरकार जिम्मेदार है।
हर सांप्रदायिक घटना का विरोध कीजिए। जमकर कीजिए। लेकिन घटनाओं को चुन चुन कर विरोध मत कीजिए। इससे आम जन के ह्रदय में आपकी जो अनुपम छवि है, वह धूमिल होती है। आपकी मौलिक लेखनी में फिर बू आने लगती है। आपकी कविताएं फिर वो जज्बात पैदा नहीं कर पाती। वे कृत्रिम लगने लगती हैं। आपकी कहानियों के चरित्र संदेश के घेरे में आने लगते हैं।