पिछले साल परिवार के साथ काठमांडु जाने का अवसर मिला। यात्रा संस्मरण 12.04-15 के डेली न्यूज के हमलोग के अंक में।
शिव, प्रकृति
और इतिहास का संगम : काठमांडु
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मुरारी गुप्ता
शिव के धाम बनारस जाने का अभी तक अवसर नहीं
मिला। लेकिन जेहन में बसे बनारस के घाट, गंगा
का सुमधुर प्रवाह, संध्या आरती, शिव प्रतिमा की काल्पनिक तस्वीरें
काठमांडु के पशुपतिनाथ मंदिर के अहाते और पीछे से बह रही बागमती नदीं पर हो रही
संध्या आरती को देखकर साकार हो उठी । पिछले साल के आखिरी महीनों में शिवकृपा और
मित्र भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी श्री प्रणेश गुप्ता के सौजन्य से नेपाल जाने
का अवसर मिला। हम दोनों का परिवार भी साथ में था। यात्रा सिर्फ दो दिनों की थी, इसलिए भारत-नेपाल सीमा पर रक्सौल के
रास्ते गाड़ी से वीरगंज, भीमफेदी, हैंडोदा होते हुए एक निजी वाहन से लगभग 9-10 घंटे की यात्रा कर हम
शनिवार की शाम को काठमांडु पहुंचे। बिहार के मोतिहारी से रक्सौल तक के लगभग पचास
किलोमीटर के तकलीफदेह राष्ट्रीय राजमार्ग की यात्रा को भूला दिया जाए तो नेपाल के
वीरगंज से काठमांडु तक अस्सी किलोमीटर का प्रकृति की खूबसूरत वादियों में कहीं
सकड़ी, कही चौड़ी, कभी एकदम खड़ी और कहीं एकदम ढलान वाले
रास्तों पर यात्रा का अनुभव हमेशा के लिए मन, मस्तिष्क
और आंखों में बस जाता है।
रक्सौल भारत और नेपाल की खुली सीमा पर व्यापार
का प्रमुख केंद्र है। दोनों देशों के बीच होने वाला व्यापार का अधिकांश हिस्सा
यहीं से संचालित होता है। व्यापारिक गतिविधियों से लैश इस इलाके को पार करते ही
वीर गंज से पानी की पतली धारा वाली नदी हमें काठमांडू ले जाने वाली ऊंची पहाड़ियों
की ओर जाने का इशारा करती है। बीच रास्तों में लुकाछिपी करती हुई कभी सामने तो कभी
सड़क के बगल में झरनों के पानी को इकट्ठा करती हुई वह हमारे साथ चलती जा रही
थी। इसके दोनों किनारों को जोड़ने और
स्थानीय लोगों के आवागमन को सुविधाजनक बनाने के लिए प्रशासन ने बीच-बीच में हवा
में झूलते लेकिन मजबूत लोहे के रास्ते बनाए हैं।
हैटोंडा से काठमांडु जाने के दो रास्ते हैं। एक
अस्सी किलोमीटर लंबा है, मगर कठिन है दूसरे से काठमांडु 120
किलोमीटर दूरी पर है, और बताते हैं कि वह थोड़ा आसान है।
लेकिन हमने इत्तेफाक से मुश्किल रास्ता चुना। दरअसल हम उस रास्ते पर काफी आगे बढ़
गए थे। और पहाड़ी रास्तों पर उल्टा वापस होना किसी खतरे से कम नहीं है। हम इसी राह
पर आगे बढ़ते गए। राहों के दोनों ओर डेढ़ सौ- दो सौ फीट लंबे दरख्तों को देख ऐसा
महसूस होता है जैसे सालों से शिव की तपस्या कर रहे हैं। पहाड़ों को थोड़ा सा समतल
कर धान, ज्वार, मक्का और गन्ना की खेती कर स्थानीय किसान अपने परिवार का पालन की
मशक्कत में मशगूल हैं। पहाड़ियों की गोद में बादलों से अठखेलियां करते हुए आखिर
में हमने काठमांडु शहर के बदन को स्पर्श किया। यह स्पर्श अनोखा, दिलचस्प और पवित्र था।
वैसे
काठमांडौ को दूसरा काशी ही कहा जाता है। शहर के प्रमुख आकर्षण पशुपतिनाथ मंदिर को
भगवान शिव का घर माना जाता है। बनारस से लेकर काठमांडु तक शिव के भक्तों की
श्रद्धा में लेशमात्र भी कमी नहीं है। माथे पर बड़ा सा टीका, हाथों में फूल, दीपक और प्रसाद kakaको लकड़ी का टोकरीनुमा पात्र में लिए
चतुर्मुख लिंग वाली शिव प्रतिमा पर अपनी श्रद्धा अर्पण करने के लिए अपनी बारी का
इंतजार करते श्रद्धालू बिना किसी जल्दबाजी के अपनी बारी का इंतजार करते नजर आते
हैं। शिव प्रतिमा के सामने नंदी की कांसे बनी विशाल प्रतिमा साक्षात नंदी का एहसास
कराती है कि वह अनंत अनंत वर्षों से शिव की सेवा में रत है। शिव के बगल में ही
भैरव का विशाल मंदिर है। मंदिर के अहाते
में शिव के ध्याम में मग्न शिवभक्तों को देखकर यह किसी बड़े शिव आश्रम जैसा प्रतीत
होता है। काठमांडू के राजाओं की समाधियां भी यहां मौजूद है। शिव के श्रीचरणों से
फिसलती बागमती नदी शिव के कानों में मधुर संगीत घोलती बहती जाती है। वहां हर सुबह
और शाम महाआरती के वेश में पंचभूत के दो तत्व अग्नि और जल महाभूत शिव को अपना
समर्पण करते हैं। एक संध्या को इस समर्पण का साक्षी बनने का अवसर हमें भी मिला।
नदी के स्वच्छ घाटों पर वैदिक मंत्रोच्चारों के साथ भव्य आरती नास्तिक के हद्दय
में भी शिव कंपन्न पैदा कर देती है। बच्चे, महिला, बुजुर्ग सभी आरती की स्वर लहरियों और नदीं के प्राकृतिक संगीत पर
झूमते नजर आते हैं। जैसे बनारस में गंगा
शिव के श्रीचरण स्पर्श करते हुए बहती है, वैसे
ही यहां बागमती महादेव को सिर नवाती बह रही है। हाल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
द्वारा मंदिर में दान की गई चंदन की लकड़ियों को घिसकर बनाया तिलक श्रद्धालुओं के
ललाट को महका रहा था।
यूं तो नेपाल अब धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बन गया
है। लेकिन स्थानीय लोगों के लिए उनका राष्ट्रीय देवता शिव ही है और यह मंदिर उनका
मुख्य निवास है। मंदिर में गैर हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है। गैर हिंदु आगंतुक
बागमती नदी के दूसरे किनारे से इसे बाहर से देख सकते हैं। हालांकि मंदिर के प्रवेश
द्वार पर किसी से नहीं पूछा जाता कि वह हिंदू है या नहीं। संभव है चेहरा देखकर
पहचान लिया जाता हो, मगर ऐसा भी कुछ प्रतीत नहीं हुआ ।
मंदिर के पुजारी दक्षिण भारत के ब्राह्मण होते हैं। मंदिर की सुरक्षा व्यवस्था
नेपाल के सैन्य बल के हाथों में है। दर्शन के लिए पंक्तियां बनाने से लेकिर प्रसाद
वितरण का काम इनके हाथ में हैं। और हां, श्रद्धालुओं
से ये लोग बहुत ही शालीनता से पेश आते हैं। मंदिर के इतिहास के बारे में जानकारी
जुटाई। स्थानीय किंवदंतियों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण सोमदेव राजवंश के
पशुप्रेक्ष ने तीसरी सदी में करवाया था, लेकिन
उपलब्ध ऐतिहासिक रिकार्ड तेरहवी सदी के बाद के हैं।
नगर भ्रमण के बाद हम शहर के दूसरे छोर पर
पहुंचे यहां भगवान विष्णु क्षीरसागर में आराम की मुद्रा में लेटे थे। इन्हें यहां
बूढ़ा नीलकंठ कहा जाता है। यू तो नीलकंठ महादेव का दूसरा नाम है। लेकिन भगवान
विष्णु महादेव का नाम लेकर यहां लेटे हुए है। मंदिर में घुसते ही ऐसा महसूस होता
है जैसे दक्षिण भारत के किसी प्राचीन गांव के मंदिर में पहुंच गए हों। प्राचीन
स्थापत्य के दर्शन यहां किए जा सकते हैं। मंदिर की सीढ़ियां चढ़ने के बाद सामने एक
कुंड में एक ही विशाल चट्टान से बनी चतुर्मुखी भगवान विष्णु की प्रतिमा मन को आकर्षित
करती है। श्रद्घालु प्रतिमा के चारों ओर प्रदक्षिणा कर मनौती मांगते है प्रार्थना
करते हैं। स्थानीय किंवदंती के अनुसार इस कुंड में पानी काठमांडु से उत्तर पूर्व
में 132 किलोमीटर दूर पवित्र स्थल गोसाइन कुंड से आता है। कहा जाता है कि विषपान
के बाद गले की पीड़ा को शांत करने के लिए शिव ने त्रिशूल से गोसाइन कुंड का
निर्माण किया था। मंदिर के नीचे सीढ़ीयों के बाहर पूजा सामग्री बेचने वालों की
लंबी कतारे हैं, जहां सुंदर शिवलिंग और रूद्राक्ष की
मालाओं को बाहर के पर्यटक याद को तौर पर खरीद कर ले जाते हैं।
ढलती दोपहर में काठमांडू शहर को नापना आंखों को
अनौखा सुकून देता है। साफ सुथरी सड़कें। शायद सफाई और कचरा निस्तारण के बारे में
हमें काठमांडू से सीखने की जरूरत है। पूरे शहर में कहीं भी गंदगी नजर नहीं आती।
शहर के चौराहों पर यातायात को सामान्य तौर यातायात पुलिस के जवान ही नियंत्रण करते
हैं। 25 लाख की जनसंख्या वाले इस शहर में भरपूर संख्या में वाहनों के बावजूद लोगों
को बाहनों की आपाधापी नजर नहीं आती। नो पार्किंग में खड़े वाहनों को यातायात पुलिस
के जवान बहुत इत्मिनान और शांति से उठाते हैं। शहर की सड़के बहुत ज्यादा चौड़ी नहीं
है, लेकिन सभी लोग अनुशासन से यातायात
नियमों का पालन करते नजर आते हैं। शहर के मुख्य बाजारों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों
के उत्पादों के बड़े शोरूम हैं, जहां
भारत की तुलना में उत्पाद काफी महंगे हैं। संभवतया उत्पादों को यहां तक लाने की
मशक्कत के कारण।
अगर आप पूरी तरह शाकाहारी हैं तो भी काठमांडू
में आपको किसी भी तरह की तकलीफ नहीं होगी। आपको हर दो सौ मीटर की दूरी पर अच्छे
रेस्तरां मिल जाएंगे। शाकाहार भोजन की तलाश में हम एक माल में घुसे। थाली प्रणाली
यहां भी चलन में है। दाल और पनीर की सब्जियों का स्वाद ऐसा कि पूरी तरह तृप्त हुआ
जा सकता है। खाना एक दम इकोनोमी। भारतीय मुद्रा में महज सात-आठ सौ रूपए में चार
लोगों का भरपूर खाना। वैसे यहां सामिष भोजन लोगों के दैनिक आहार में शामिल है।
लेकिन शहर में घूमते हुए एहसास नहीं होता है कि मांस की दुकाने भी यहां है। मांस
की दुकानों के आगे दुकान का बोर्ड देखने के बाद ही इसका पता चलता है-फ्रेश मिट शप।
नेपाली भाषा में ऐसा ही लिखा होता है यानी कि फ्रेश मीट शॊप। शीशे के अंदर पैक, साफ सुथरी दुकानों के आसपास काटे जाने
वाले जानवर भी नजर नहीं आते। और हां, नेपाल
में गाय को भारत की तरह पवित्र माना जाता है। पूजा जाता है।
दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों जापान, थाइलैंड, वियतनाम, कंबोडिया, इंडोनेशिया, जावा, श्रीलंका और चीन के पर्यटक यहां बड़ी संख्या में देखे सकते हैं। खास
कर यहां के महात्मा बुद्ध से जुड़े स्थलों पर। ऐसे ही एक स्थान स्वयंभूनाथ बौद्ध
स्तूप में जाने के लिए हमारे स्थानीय सहयोगी ने हमें मशविरा दिया। पहाड़ियों के
बीच स्थित इस स्तूप में अनेक मंदिर हैं। इसे भगवान बुद्ध की आंख कहा जाता है। यहां
बड़ी संख्या अठखेलियां करते लाल मुंह के बंदर पर्यटकों को अपना कैमरा आन करने के
लिए मजबूर कर देते हैं। इसे मंकी टेंपल भी कहा जाता है। स्तूप के चारों ओर पतली
डोरियों में लिपटी लाखों की संख्या में रंग-बिरंगी झंडियों की कतारें स्तूप के
दृश्य को मनोरम बना देती है। स्तूप में प्रवेश के लिए भारत सहित दक्षिण एशियाई
देशों और अन्य देशों का प्रवेश शुल्क अलग अलग है। खास बात है कि नेपाल ने दक्षिण
एशियाई देशों के लिए रियायती प्रवेश शुल्क की सूची में चीन को शामिल कर लिया है।
पिछले एक दशक में नेपाल के चीन साथ रिश्तों में आई नजदीकी का इसे संकेत तो कहा ही
जा सकता है। इस मंदिर में प्रवेश करने से पहले अगर थोड़ी भूख लगी हो तो स्तूप के
प्रवेश द्वार पर रोटी के साथ चना, सोयाबड़ी
और आलू की बिना तेल और मिर्च मसालों की सब्जी का आनंद लिया जा सकता है। इस परिसर
के आसपास दूर दूर तक मांस की दुकान नजर नहीं आती। स्तूप की सबसे ऊपरी स्थान से
पूरे काठमांडू शहर को आंखों में भर सकते हैं। पर्यटक इस स्थान से काठमांडू को अपने
कैमरों की रीलों में भरते हैं। यहां से इस शहर का भौगोलिक शरीर नजर आता है जो
शिवपुरी, फूलचौकी, नागार्जुन और चंद्रगिरी पहाडियों की ओट से घिरा प्याला जैसा दिखता
है। हमने भी यहां अलग अलग कोणों से अनेक तस्वीरें उतारी-पत्नी बच्चों के साथ।
बौद्ध स्तूप की पवित्र आध्यात्मिक तरंगों को
लेकर हम नेपाल के इतिहास में प्रवेश करने के लिए नारायण हिती शाही पैलेस पहुंचे।
इसे दरबार स्क्वायर भी कहा जाता है। यहां प्रवेश शुल्क नेपाली मुद्रा में विदेशी
नागरिक के लिए ढाई सौ रूपए है। सामान्य तौर पर यह कुछ ज्यादा प्रतीत हुआ। यह महल
लगभग वैसा ही है जैसे हम राजस्थान के किसी भी प्राचीन महल या जयपुर के सिटी पैलेस
में घूम रहे हो। लेकिन इस महल का दुखद पहलु ही इसका सबसे बड़ा दिलचस्प और रोमांचक
पहलु है। पूरे शाही पैलेस में महाराज वीरेंद्र वीर विक्रम शाह पर ज्यादा फोकस है।
शायद इसलिए कि वे नेपाल के लोकप्रिय राजा रहे हैं। शाही पैलेस के तस्वीरों में
भारत के राष्ट्राध्यक्षों की कई तस्वीरें दिखाई देती हैं। इस महल का काफी हिस्सा
नया है। और उसमें आधुनिक स्थापत्य को देखा सकता है।
महल घूमने के बाद इसके पिछवाड़े के शाही महल के
ध्वंस स्थान पर जाकर आपके दिमाग में वर्तमान, भूत
और भविष्य गड्डमड्ड हो जाता है। यह वह स्थान है जहां से नेपाल के इतिहास ने नई
करवट ली। तेरह साल पहले का ऐतिहासिक घटनाक्रम यहां ताजा हो जाता है। ऐसी घटना
जिसने लोगों की श्रद्धा को हिलाकर रख दिया। ऐसा घटनाक्रम जिसमें महत्वाकांक्षाओं
के उफान ने उथल पुथल मचा दी। हम एक जून 2001 की घटना से महज एक मीटर की दूरी से
गुजर रहे थे कि कदम वहीं ठिठक गए। राजा वीरेंद्र वीर विक्रम शाह और पूरे परिवार की
हत्या के स्थल से गुजरते ही उस वक्त के अखबारों में छपी बड़ी बड़ी हैडलाइंस आंखों
के सामने आ गई। कुछ पलों के लिए चित्त उस घटना क्रम की कल्पना में डूब गया।
हालांकि उस घटना का छोर यहां की खुफिया एजेंसियां अभी तक नहीं तलाश सकी है। नेपाल
के लोकप्रिय राजा बीरेंद्र,
रानी ऐश्वर्या सहित परिवार को दस लोगों
की हत्या किए जाने की कहानियां अभी भी यहां के माहौल में मौन है। घटनास्थल के
गलियारों और कक्षों को ध्वस्त कर दिया गया है। उनकी सिर्फ नींव भर छोड़ दी गई है, ताकि घावों को हरा होने से रोका जा
सके। लेकिन इतिहास कभी मिटाया जा सका है क्या। इतिहास के निशान महल गिराने से नहीं
मिटते, ऐसे घाव हमेशा जिंदा रहते हैं।
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