Sunday, December 5, 2010
क्या रामविलास पासवान को कश्मीरी पंडितों से मिलने का वक्त मिलेगा??
बिहार चुनावों में कड़ी शिकस्त खाने के बाद लोक जनशक्ति पाटॆी के मुखिया श्री रामविलास पासवान कश्मीर मुद्दे का हल ढूंढ़ने के लिए शनिवार को श्रीनगर पहुंचे और हुरियत नेता मीरवाइज उमर फारुक, गिलानी से बातचीत की. उन्होंने केंद्र सरकार को गिलानी के पांच सूत्री फामॆुले का जबाव देने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव भी डाला है.
मगर अफसोस कभी पासवान साहब दिल्ली और श्री नगर से पहले पड़ने वाले जम्मू के विस्थापित सैकड़ों पंडितों के दुख-ददॆ टटोलने के लिए उनके पास नहीं पहुंचे. उन्हें सिफॆ कश्मीर के सियासी मुस्लिमों की चिंता सताती है या कहें कि अपने मुस्लिम वोटों की फिक्र सताती है. लाखों की तादाद में देश के कई हिस्सों में अपनी मातृभूमि से दूर दर-बदर हालात में रहे रहे कश्मीरी पंडित का कश्मीर का हिस्सा नहीं है. क्या उनके बिना कश्मीर समस्या का हल संभव है. क्या कश्मीर समस्या के हल के लिए कश्मीरी पंडितों को शामिल नहीं किया जाना चाहिए.
रामविलास पासवान जैसे सियासी नेता का कश्मीर जाकर अलगाव वादियों से बात करना, महज मुस्लिम तुषि्टकरण है और कुछ नहीं. वृहद हिंदु समाज से कथित रूप से दलितों को अलग कर उनसे दलित राजनीती करने वाले रामविलास पासवान से कश्मीरी मुस्लिमों और कश्मीरी पंडितों को कोई आशा नहीं करनी चाहिए.
Saturday, November 27, 2010
Thursday, October 28, 2010
बीबीसी हिंदी सेवा का भारत के प्रति विध्वंसक नजरिया !!
बीबीसी हिंदी की समाचार सेवा भारत के प्रति कैसा नजरिया रखता है, गाहे-बगाहे यह बात सामने आती रहती हैं. मगर पिछले कुछ दिनों से बीबीसी हिंदी जिस तरह की एक तरफा पत्रकारिता कर रहा है, वह बहुत खतरनाक है.
आखिरकार बीबीसी हिंदी का भारत के प्रति सोचने का नजरिया सामने आ ही गया. पिछले हफ्ते बीबीसी ने रेडियो पर बातचीत का विषय रखा था- -क्या कश्मीरी अलगाववादियों को शांतीपूणॆ तरीके से अपनी बात कहने की इजाजत देनी चाहिए. क्या कभी ये भी विषय रखने के बारे में सोचा कि क्या कश्मीरी पंडितों को वापस कश्मीर घाटी में लौटने देना चाहिए. जो ढ़ाई सौ साल पहले इंग्लैंड ने भारत में किया, लगभग वैसा ही बीबीसी हिंदी अब भारत के साथ कर रहा है. अलगाववादी कौनसी बात करना चाहते हैं. आजादी की?
क्या बीबीसी लंदन उन्हें आजादी दिलाएगा. हर बार बीबीसी लंदन के विषय भारत विरोधी होते हैं. इससे बीबीसी हिंदी की मानसिकता समझ में आती है.
छब्बीस अक्टूबर को बीबीसी के मुख्य पृष्ठ पर अरुंधति राय का कमेंट छपा-न्याय की मांग करने पर जेल. इससे पहले भी उनके कश्मीर आजादी के बयान को प्रमुखता से छापा. हम बीबीसी लंदन की मानसिकता को समझ रहे हैं. शायद उन्हें भारत में अलगाव फैलाने में खूब मजा आता है.
लेकिन बीबीसी लंदन वालों, बीबीसी हिंदी वालों यह कान खोल कर सुन लो, यह हथकंडा अब ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाला. अरुंधति और जिलानी जैसे देशद्रोहियों और उनके बढ़ावा देने वाली बीबीसी हिंदी को यहां का पत्रकार जगत अच्छी तरह जानता है.
भारत के बुद्धिजीवियों और पत्रकार जगत को बीबीसी को इसका करारा जबाव देना चाहिए. उसकी असलियत को सबके सामने लाने की जरूरत है. देश को तोड़ने वाली बीबीसी हिंदी की पत्रकारिता भारत में पत्रकारिता की जड़े खोदने का काम कर रहा है. उसके समाचारों में भी भारत विरोधी भावनाओं को महसूस किया जा सकता है.
Thursday, October 21, 2010
कश्मीरी पंडितों को उनका हक दिलाने का वक्त
आखिर कश्मीरी पंडित कब तक अपने ददॆ को अपने जेहन में छुपा कर रखेंगे. अलगाववादी जिलानी पर जूता फैंकना महज एक प्रतीक है. पंडितों की सरजमीं पर अलगाव वादियों को प्रश्रय देना, ये कौनसा कानून है. पिछले बीस-बाइस सालों से दर-दर की ठोकर खा रहे कश्मीरी पंडितों के घावों पर कभी मल्हम लगाने की कोई बात नहीं होती. पूरी केंद्र सरकार कश्मीर के कथित अल्पसंख्यकों या फिर अलगाव वादियों के तुष्टिकरण में जुटी हुई है. एक बार कश्मीरी पंडितों को उनके मूल घरों में पहुंचा दीजिए, जम्मू-कश्मीर की समस्या खुद-ब-खुद हल हो जाएगी.
उनके लिए केंद्र सरकार के पास कोई पैकेज नहीं है. वे सालों से दिल्ली, राजस्थान, जम्मू समेत पूरे भारत में शरणाथिॆयों की तरह जीवन जी रहे हैं. क्या वे इस देश के नागरिक नहीं है. क्या उन्हें जीने का कोई अधिकार नहीं है. जब भी कश्मीर समस्या का हल निकालने की बात होती है, सारे राजनैतिक दल कश्मीरी पंडितों को क्यों भूल जाते हैं. शायद इसलिए कि उनका कोई सामूहिक वोट बैंक नहीं है. वे विधानसभा या लोकसभा के चुनावों को प्रभावित नहीं कर सकते हैं. पांच लाख कश्मीरी पंडित देशभर में तितर-बितर है, उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं है, मगर कुछ अलगाव वादी ताकतें सुरक्छा बलों पर पत्थर फैंक कर दिल्ली से सांसदों के दल को कश्मीर आने पर मजबूर कर देते हैं.
शायद यही सब कुछ कश्मीरी पंडितों को करने की जरूरत है. अपना हक लेने के लिए उन्हें भी अलगाव वादियों से लेकर केंद्र और राज्य सरकार से भिड़ना पड़ेगा. देश के तमाम मानवाधिकार संगठनों के आगे आकर कश्मीरी पंडितों को उनका वास्तविक हक दिलाने में मदद करनी चाहिए. अन्यथा संभव है देश के हालात आजादी के वक्त जैसे हो जाएंगे.
Wednesday, October 20, 2010
Tuesday, October 19, 2010
Monday, October 11, 2010
नमन
अद्भुत, असीम प्रकृति
चिरंतन, सुकुन सुख
हवाएं, हरीतिमा और पहाड़ियां
बादलों की ओट में
लुका-छिपी का खेल
चुपके से सूरज
बादलों के आंचल में
बालक की भांति
निकल मुस्काता
सूरज की किरणें
रेशमी फुहारों के साथ
मंद मंद सी चेहरे पर
ठंडक का एहसास
बांस के लंब कद में
अटकती, अंगड़ाती
पहली किरण
मेरे आंगन में गिरती
ठंडी, रेशमी बूंदों में भींगी
किरण को पलकों पर ले
आदित्य को नमन।
Friday, October 1, 2010
यह कैसा न्याय????
आखिरकार अयोध्या मामले पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपना निणॆय सुना दिया. न्यायालय ने विवादित जगह को तीन हिस्सों में बांटकर एक हिस्सा वक्फ बोडॆ को दे दिया. अफसोस की बात है कि न्यायालय ने यह मानकर भी वहां मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाई गई थी, और किसी इस्लामिक सिध्दांत के मुताबिक मस्जिद का निमॆाण उचित नहीं, हिंदुओं के पवित्र स्थल का एक हिस्सा उनको सौंप दिया. सच्चाई तो यही है कि अयोध्या भगवान श्री राम का जन्म स्थल है और सदियों से हिंदुओं का आस्था का तीथॆ है. इस सच्चाई को किसी भी भाई चारे की भावना के बावजूद भुलाया नहीं जा सकता। अभी भी सभी लोग भाई चारे की बात कर रहे, मगर सच्चाई को स्वीकार करने की हिम्मत नहीं है। युवा पीढ़ी को जिस तरह देश के विभाजन को भुलवाया जा रहा है, उसी तजॆ पर राम मंदिर को भी भुलवाया जा रहा है। आखिर यह देश और यहां के युवा कब तक अपने आत्मगौरव से वंचित होते रहेंगे। और मीडिया....शायद उसका मकसद ही यहां के युवाओं के भीतर के आत्मगौरव को मारने का है।
इन दिनों सभी लोग भाईचारे की बात कर रहे हैं, मगर किसकी कीमत पर है. हिंदुओं की भावनाओं की कीमत पर. भगवान राम के जन्म स्थल की कीमत पर. इस भाईचारे की कीमत को हम ही क्यों भुगते.
Saturday, September 25, 2010
खामोश आवाज-है कोई सुनने वाला
अशांत वादियों की सैर से
तोपें, पत्थर, बंदूकें
सब शांत हो जाएंगे
सब फिर से
मुस्कराने लगेंगे,
अजानों में माना
फिर से चैन की अजान
सुन सकोगे,
मगर उन ददॆों का क्या
जो कैंपों में सिसक रहा है
बचपन से बूढ़ा हो गया
शहर-शहर भटक रहा है
शायद इसलिए कि
वह बंदूक नहीं उठाता
पत्थर नहीं फैंकता
आजादी की बात नहीं करता
है कोई कान वाला
नुमाइंदा,
धड़कते दिल वाला
मदॆ नेता,
संसद मागॆ पर
शायद नजर नहीं आता।
अजान के साथ घड़ियालों की आवाज
एक सपना ही रहेगा।
--हाल में केंद्रीय दल का कश्मीर दौरा
Thursday, September 23, 2010
सेकुलरवादी होने की दौड़ में
श्री राम का डर मूर्त रुप ले चुका था. वो दौर खुद से घृणा का था. क्योंकि भगवान राम तो त्याग के देवता हैं. उन्होंने कभी ख़ून बहाने की बात नहीं की. यहां तक कि उसका खून बहाने से पहले भी उससे बातचीत का प्रस्ताव रखा जो उनकी पत्नी को हर ले गया था.........................
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मैं तो बस इतना कहता हूं काशी और मथुरा में जब मंदिर मस्जिद साथ रह सकते हैं तो अयोध्या में क्यों नहीं...मंदिर भी बने और मस्जिद भी बने. दोनों की दीवारें लगती हों. अज़ान और घंटियां साथ साथ बजें क्योंकि ये दोनों आवाज़ें हम सभी ने एक साथ कहीं न कहीं ज़रुर सुनी होंगी. जिन्होंने नहीं सुनी उनसे मेरा वादा है कि दोनों आवाज़ें एक साथ बड़ी सुंदर लगती हैं...........................
..........................
ये बीबीसी के एक विद्वान पत्रकार सुशील झा के ब्लाग अंश हैं.....जिसमें वे कल्पना करते हैं कि मंदिर के बगल में एक मस्जिद हो, तो भारत अजान और घंटी की आवाज सुनकर उनका दिल बाग-बाग खिल जाएगा. क्या सच में. कई लोगों ने उनके ब्लाग पर टिप्पणी की है। कुछ ने उन्हें जमकर कोसा है. कुछ सेकुलरवादियों ने उनकी तारीफ भी की है. जनाब को एक वक्त खुद से घृणा भी हुई थी. जब गुजरात दंगे हो रहे थे. कई बार तरस आता है कि इन कथित सेकुलर वादियों को ईश्वर सद्बुद्धि प्रदान करें.
मीडिया में, खासकर अंग्रेजी मीडिया में तो पत्रकार लोग खुद को सेकुलर साबित करने के लिए क्या-क्या कल्पना नहीं कर रहे. मंदिर के बगल में मस्जिद के लिए शायद चंदा भी इकट्ठा कर रहे हों। झा साब कहते हैं कि जब काशी, और मथुरा में मंदिर और मस्जिद साथ-साथ रह सकते हैं, तो राम जन्मभूमि अयोध्या में क्यों नहीं. खूब फरमाया झा साब ने। कोई उनसे कभी मूंछे साफकर दाढी बढ़ाने के लिए कहिए. या खतना करवाने के लिए कहिए. चलो इतना भी नहीं तो...उनके गांव में कोई मस्जिद की दीवार के सहारे मंदिर के दीवार बनाने के बारे में भी सोचिए. मगर वे ऐसा क्यों करेंगे. वे तो सेकुलरवादी है ना. उन्हें ऐसा करने की जरूरत नहीं है. कितना अजीब है, सेकुलर कहलवाना है, तो हिंदुओं को गाली देना शुरू कर दीजिए. उनकी भावनाओं का मनचाहे ढंग से मजाक करना शुरू कर दीजिए. भगवान राम को काल्पनिक बताना शुरू कर दीजिए. आपसे बड़ा सेकुलर आपके आसपास नजर नहीं आएगा.
दुनिया जानती हैं, कि भारत देश से बड़ा सहिष्णु देश दुनिया में कहीं नहीं है.कृपया...इन कथित सेकुलरवादियों को करारा जबाव दीजिए. अपनी प्रतिक्रियाओं से, लेखों से, पत्रों से, बोलकर या कहकर.
जय भारत
अंश.......
बरगद के पेड़ से छिटकी एक टहनी
कराहती हुई बोली
क्या अब मेरा कोई अस्तित्व नहीं
क्या अब मेरी नियती खत्म हो जाना है
मुस्कराता हुआ, अपनी हवा में लटकी जड़ों को
हवा में लहराता हुआ बरगद बोला
तुम्हारे भीतर मेरा अंश है
तुम गलकर धरती के भीतर
मेरी जड़ों से चिपककर
हवा में उठकर फिर से
एक दिन देखना
मेरे सीने से लग जाओगे.
तुम मुझसे अलग कहां हो
वक्त गुजरते कितना वक्त लगता है
तुम मेरे ही अंश हो, मेरे बहुत करीब
Sunday, September 19, 2010
अपनी आंखें खोलों....कथित बुद्धिजीवियों
इन दिनों न्यूज चैनलों में एक नया चलन चल रहा है. अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए संतों को बदनाम करने वाली सनसनीखेज- रिपोटॆ- तैयार कर रहे हैं। खास बात यह कि इन सनसनीखेज रिपोटॆ को तैयार करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। बातों को तोड़-मरोड़, तथ्यों के गलत ढंग से पेश कर सकते हैं। सबसे तेज जो होना है। उनका दोष नहीं है। आंखों पर सनसनी का परदा चढ़ा हुआ है। चाहे जैसे भी हो बस सनसनी चाहिए। चाहे किसी भी कीमत पर हो.
आज तक के कथित बुद्धीजीवी संपादक प्रभू चावला या नकवी को शमॆ नहीं आती कि वे देश को क्या परोस रहे हैं। क्या उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास है। अगर उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास नहीं है, तो जो समाज और देश की जिम्मेदारियां उठा रहे हैं, उस दिशा में काम कर रहे, उनकी राह में क्यों अपने विष्ठानुमा चेहरों को बिछाते हैं और उनकी राह में रोड़ा बन रहे हैं। अपनी जेबें भरने के लिए वे इस हद तक गिर सकते हैं....इसमें कोई आश्चयॆ नहीं है।
कभी किसी मौलवी का स्टिंग आपरेशन करने की हिम्मत है, नकवी साहब, प्रभू चावला साहब. एक बात जेहन में रखना, अब इस देश के समाज में सैलाब बढ़ रहा है, यह किसी को माफ नहीं करता. और जब बात समाज के गले से ऊपर तक चली जाती है, तो यह सैलाब सारे तंत्र को बिखरा देता है। इसलिए सावधान हो जाइए। अपनी टाइयां ढीली कर लीजिए.
अपनी नए संवाददाताओं को थोड़ा पढ़ाइए, इस देश का ग्यान करवाइए. यहां की परंपरा-सभ्यता के बारे में थोड़ा बताइए. पत्रकारिता करने और किसी चैनल में या किसी अखबार में दिहाड़ी की मजदूरी मिल जाने से ही आप शहंशाह नहीं हो जाते, यह भी उन्हें समझाइए. उन्हें अपने होने का एहसास करवाइए. इस देश में होने का एहसास करवाइए. भारत देश में होने का एहसास करवाइए. थोड़ा सोचने का वक्त मिले, तो खुद को भी इस देश का बेहतरीन नागरिक होने का एहसास करवाइए. यह आपके लिए ही नहीं, सभी कथित बुद्धिजीवी चैनलों के संपादकों को मेरा विनय पूवॆक आग्रह है।
आज तक के कथित बुद्धीजीवी संपादक प्रभू चावला या नकवी को शमॆ नहीं आती कि वे देश को क्या परोस रहे हैं। क्या उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास है। अगर उन्हें अपनी जिम्मेदारियों का एहसास नहीं है, तो जो समाज और देश की जिम्मेदारियां उठा रहे हैं, उस दिशा में काम कर रहे, उनकी राह में क्यों अपने विष्ठानुमा चेहरों को बिछाते हैं और उनकी राह में रोड़ा बन रहे हैं। अपनी जेबें भरने के लिए वे इस हद तक गिर सकते हैं....इसमें कोई आश्चयॆ नहीं है।
कभी किसी मौलवी का स्टिंग आपरेशन करने की हिम्मत है, नकवी साहब, प्रभू चावला साहब. एक बात जेहन में रखना, अब इस देश के समाज में सैलाब बढ़ रहा है, यह किसी को माफ नहीं करता. और जब बात समाज के गले से ऊपर तक चली जाती है, तो यह सैलाब सारे तंत्र को बिखरा देता है। इसलिए सावधान हो जाइए। अपनी टाइयां ढीली कर लीजिए.
अपनी नए संवाददाताओं को थोड़ा पढ़ाइए, इस देश का ग्यान करवाइए. यहां की परंपरा-सभ्यता के बारे में थोड़ा बताइए. पत्रकारिता करने और किसी चैनल में या किसी अखबार में दिहाड़ी की मजदूरी मिल जाने से ही आप शहंशाह नहीं हो जाते, यह भी उन्हें समझाइए. उन्हें अपने होने का एहसास करवाइए. इस देश में होने का एहसास करवाइए. भारत देश में होने का एहसास करवाइए. थोड़ा सोचने का वक्त मिले, तो खुद को भी इस देश का बेहतरीन नागरिक होने का एहसास करवाइए. यह आपके लिए ही नहीं, सभी कथित बुद्धिजीवी चैनलों के संपादकों को मेरा विनय पूवॆक आग्रह है।
Tuesday, August 31, 2010
राजनीति, मौसम और मयखाने
अरुणाचल संभवतया देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां विधानसभा में कुछ निदॆलियों को छोड़ दें, तो अपोजिशन के नाम पर शून्य की स्थिति है. यानी सरकार के खिलाफ बोलने वाला कोई नहीं। मगर हां, यहां गली, नुक्कड़, कालोनी, ढाणी, समूदाय, शहर, कालेज, कमॆचारी के नाम पर संगठनों की भरमार है। और खास बात ये कि अपनी किसी न किसी मांग को लेकर ये संगठन सरकार को आए दिन धमकाते रहते हैं। और राज्य सरकार भी उनकी मांगों के लिए वाकायदा कमिटी बैठाती है, उनकी मांगों को पूरी शिद्दत से सुनती है. ये संगठन सरकार को सीधे चेतावनी देते हैं. शहर, राज्य को बंद करने की धमकी देते हैं.
अभी कुछ दिन पहले राज्य के पूवॆ मुख्यमंत्री गेगांग अपांग को हजारों करोड़ों रुपए के पीडीएस घोटाले में गिरफ्तार क्या कर लिया, आदि समुदाय ने उनकी गिरफ्तारी के खिलाफ राज्य में विरोध प्रदशॆन करने की धमकी दे दी। यहां आपको बताता चलूं कि गेगांग अपांग देश का एक मात्र ऐसा मुख्यमंत्री रहा है जो लंबे समय तक लगभग २३ सालों तक इस पद पर रहा है। वे आदी समूदाय से आते हैं। जाहिर है आदी समूदाय के लोगों का गुस्सा होना जायज है। राज्य में १६ प्रमुख आदिवासी समूदाय है। उप आदिवासियों की संख्या सैकड़ों हैं। सबके अपने नेता है। अपने संगठन हैं। अपनी मांगे हैं। अपने विधायक हैं। अपने मंत्री हैं। अपने समूदाय के एक शीषॆ नेता को गिरफ्तार होते देख आदी समूदाय का भड़कना स्वाभाविक है। गेगांग अपांग कांग्रेसी नेता भी हैं। कहा जाता है कि राज्य सरकार में उनके विरोधियों की अच्छी खासी तादाद है। समूदाय का दावा है कि उनकी गिरफ्तारी राजनैतिक है।
और हां, अभी अरुणाचल और असम के सीमावतॆी इलाके में कुछ जगह को लेकर दोनों राज्यों में तनाव बढ़़ा हुआ है। आपस में फायरिंग भी हुई। एक अरुणाचल की ओर का व्यक्ति घायल भी हो गया। जिसको लेकर और भी ज्यादा तनाव हो गया। असम के छात्र संगठनों ने अरुणाचल जाने वाले रास्तों को जाम कर दिया. यानी अरुणाचल आने वाला राशन के तिरप जिले में आने वाला राशन बंद। इसे अंग्रेजी में इकोनोमिक ब्लोकेड कहते हैं, लगा दिया. कई दिनों तक यह जारी रहा. अरुणाचल की सरकार ने असम सरकार से, अरुणाचल के छात्र संगठनों ने असम के छात्र संगठनों से इस आथिॆक नाकेबंदी को हटाने का आग्रह किया. बात बनी. कुछ नहीं बनी. राज्य के वित्त मंत्री को आसाम वहां के मंत्रियों के साथ मिलकर बैठकें कीं, तब कहीं जाकर यह नाकेबंदी हटी। खबरें हैं कि अभी तनाव कुछ कम हुआ है. पिछले लगभग पंद्रह दिनों से रेडियों की पहली सुरखी यह खबर बन रही है. मुझे भी अब यहां की कुछ बातें समझ में आने लगी हैं.
इधर मौसम बेवफा सनम की तरह है। सुहाने मौसम में मन को खुश करते हुए निकलो, बीस कदम बाद सूरज आपको पसीना-पसीना कर देगा. सूरज का मूड देखकर बिना छतरी निकले यहां घाटे का सौदा है, मैं कड़क धूप की बात नहीं कर रहा.हम तो वैसे भी ४०-४५ डिग्री के बीच रहने वाले हैं, कब आपके ऊपर कोई बादल का टुकड़ा आकर छोटे बच्चे की तरह चिढ़ाता हुआ आप पर बरस जाए, कहा नहीं जा सकता.
मयखाने को पसंद करने वालों के लिए यह स्वगॆ है. अपने यहां तो पान की दुकान भी कम से कम तीन सौ कदम पर मिलेगी, मगर यहां हर पचास कदम पर मनपसंद ब्रांड की शराब मिल जाएगी. दरअसल शराब का धंधा यहां फायदे का सौदा है. बेचने वाले और पीने वाले दोनों के लिए ही. यहां शराब पर टैक्स नहीं है. मगर कुछ साथी, जिनके लिए यह मस्ती का पैमाना है, मिजोरम में फंस गए हैं. मिजोरम इस लिहाज से सूखा प्रदेश है. खैर, मैं उन नामुराद दुकानों को देखकर आगे बढ़ लेता हूं. मगर देखता जरूर हूं. देखकर अपने साथियों के लिए आहें भरता हूं. काश उनकी जगह मैं पी पाता. यां यहां से एक पाइप लाइन से सप्लाई कर पाता. अफसोस दोस्तो.
फिर से पहले पैरा की बात पर लौटता हूं. तीन सितंबर से राज्य विधानसभा का मानसून सत्र शुरू हो रहा है. कवरेज के लिए जाना है. जिग्यासा है. कवरेज करने की. इससे भी ज्यादा इस बात को जानने की कि बिना अपोजिशन के विधानसभा की तस्वीर कैसी होती है....
कोई नए समाचार मिलने तक....
राम राम
Saturday, August 21, 2010
हरा-भरा-मनोरम अरुणाचल
हरी-भरी पहाड़ियों, दरियाओं, बांस के पेड़ों और गहरी खाइयों को पार करती हुई बस जब अरुणाचल प्रदेश के बांदरदेवा में रुकी, तो लगा कि शायद यही ईटानगर होगा। सुबह के लगभग सवा चार या साढ़े चार बजे होंगे। आंखों में नींदे अभी जागी ही थीं। आंखें मसलते हुए खिड़की से बाहर देखा, तो लोग मंजन कर रहे थे। मैंने मोबाइल की घड़ी में वक्त देखा। अभी साढ़े चार ही बजे थे। मगर सूरज लुकाछिपी करता हुआ बादलों में आ बैठा था। मैं यही सोच रहा था कि अभी जयपुर में लोग रात की नींद का आनंद ले रहे होंगे, और यहां लोगों ने सुबह के दैनिक कामों को निपटा दिया। खैर, यहां सभी को अपना इनर लाइन परमिट दिखाना पड़ता है। यानी कि अरुणाचल क्यों आए। इसके लिए बाकायदा दिल्ली, गुवाहाटी से पास बनता है। खैर मेरे पास सरकारी पहचान पत्र था, इसलिए कोई मुश्किल नहीं हुई। बस रवाना हुई।
लगभग ३५ किलोमीटर तक पहाड़ियों, खाइयों, दरियाओं और बादलों की ओट में बस आगे बढ़ रही थी। पिछले चार महीने से यहां लगातार बारिस हो रही है, लिहाजा सड़कों के हालात बहुत अच्छे नहीं है, मगर बस के चालकों को इससे कोई फकॆ नहीं पड़ता। दिल्ली-जयपुर के सपाट मागॆ पर इतनी रफ्तार से बसें नहीं दौड़ती, जितनी तेजी से यहां पहाड़ी सड़कों पर बसें दौड़ती हैं। गुवाहाटी से ईटानगर का लगभग चार सौ किलोमीटर का सफर साढ़े सात घंटे में। खैर, अब तक ईटानगर आ चुका था।
छोटा सा शहर है। हरी-भरी पहाड़ियों की गोद में बसा हुआ। और पहाड़ियां चौबीसों घंटे बादलों से गुफ्तगु करती रहती हैं। जब ये दोनों बहुत खुश होते हैं, तो सारा नगर बूंदों से नहा उठता है। इसलिए यहां हर हाथ में छाता नजर आ जाएगा। मालूम नहीं चलता कि कब पहाड़ियां और बादल आपस में नाराज होकर अलग हो जाए और उनके बीच सूरज आकर जलाने लगे, और कब इकट्ठे होकर बूंद बरसाने लगे। हमने भी दो रंगीन सी छतरियां खरीद ली हैं। मगर आदत नहीं है साथ में लेने की, इसलिए खूब भीगना भी पड़ता है। छतरियां यहां ज्यादा महंगी नहीं है। मगर हां, कीमते आपको कम करवानी पड़ेंगी। चार सौ रुपए का सामान आप थोड़ा बारगेनिंग करके दौ सौ में ले सकते हैं। अच्छी बात ये कि हमारे यहां के लोगों के विपरीत कीमते करवाने और खरीदकर ले जाने के बाद ये लोग आपको गाली नहीं देते। बल्कि उतनी ही मोहब्बत से कीमते कम करते हैं। शहर थोड़ा महंगा है। इसकी वजह यह है कि यहां किसी भी वस्तु का उत्पादन नहीं होता। सारा सामान आसाम से आता है। अभी परसों की बात है, सब्जी मंडी में हमारी (यहां हमारी से तात्पयॆ मैं और मेरी पत्नी प्रेरणा से है) नजर एक फूलगोभी पर पड़ी। सोचा आज फूलगोभी बनाई जाए। एक फूल उठाया, लगभग आधा किलो का होगा। मैंने बीस रुपए का नोट निकाला। उससे पूछा- कितना हुआः बोला- सर पचास रुपए। अब तक फूल गोभी को अपने थैले में जमा कर चुके थे। इसलिए फिर से लौटाना भी अच्छा नहीं लगा। पचास का नोट थमा चुपचाप एक दूसरे का मुंह देखते हुए चले आए। आटो वाले भी पांच आठ से दस किलोमीटर के चार सौ रुपए से कम में फटकने नहीं देते। मगर सवारी आटो और खुली सीटों वाली टाटा सूमो चलती है, जिनमें किराया दस से बीस रुपए तक है।
यहां की राजनीति- दूसरे राज्यों से एकदम अलग। अपोजिशन यहां नहीं है। जो कुछ भी धरना, प्रदशॆन, विरोध, बंद, और रैलियां निकलती हैं, वे सब छात्र संगठनों की जिम्मेदारी हैं। इसके अलावा यहां कई जातियों में बंटे वनवासी बंधु हैं। उनके संगठन है। उनकी अपनी मांगे हैं।
फिर लौटता हूं। मेरा स्टेशन लगभग आठ सौ मीटर ऊंची पहाड़ी पर है। एकदम ऊंची नहीं है। मगर एक बार चढ़ने में सिर से लेकर पीठ तक पसीने में तरबतर हो जाती है। उतरना उतना ही आसान है। घर के चारों और हरियाली है। केलों के पेड़ है। बांस के पेड़ है। केलों पर इन दिनों हरे-हरे केले भी आ रहे हैं। केले के भाव यहां दजॆनों में है। यानी कि ३० रुपए से लेकर चालीस रुपए दजॆन। यहां केले पीले नहीं होते। हरे केले ही मीठे होते हैं। दूसरे तमाम फल बहुत महंगे हैं।
सबसे अच्छी बात, जो किसी भी उत्तर भारतीय को आकषिॆत करेगी, यहां आने के बाद आपको नहीं लगेगा कि आप कहीं और आ गए। संभवतया अरुणाचल प्रदेश ही पूवॆोत्तर का एकमात्र ऐसा राज्य हैं, जहां लोग आपसी बातचीत में हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। बाहरी लोगों से नहीं, बल्कि आपस में भी बात करने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। यहां अंग्रेजी और हिंदी दोनों ही आधिकारिक भाषाएँ हैं। पहले लोग आपसी बातचीत के लिए असमिया इस्तेमाल करते थे। वैसे यहां हर बनवासी समूदाय की अपनी बोली है। हिंदी और अंग्रेजी के अलावा रेडियो स्टेशन से ग्यारह स्थानीय बोलियों में बुलेटिन प्रसारित होते हैं। आज का बुलेटिन यहीं खत्म करता हूं।
जय हिंद. जय अरुणाचल
Friday, July 16, 2010
चलो भारी मन से जुदा हो जाएं
आखिरकार मन के किसी कोने में छिपे उस दर्द के अब बाहर आने का वक्त हो ही गया। लगभग छह महीने पहले इस साल के शुरुआत में जब आईआईएमसी में आईआईएस के फाउंडेशन कोर्स के लिए देशभर के साथी लोग एकत्र हुए थे, तो मन में ख्याल आया था कि जब छह महीने बाद यहां से जुदा होंगे, तो उस पीड़ा को कैसे सहन कर पाएंगे। मगर पिछले बीस दिनों से एक-एक कर साथी छूटते जा रहे हैं। मैं कल यानी 17 जुलाई को आईआईएमसी के हास्टल से रुखसत हो जाऊंगा। हास्टल में अब सिर्फ सुदीप्तो, मानस, रितेश, मनोज, जेना, सुंदरियाल, निशात और मधु बचे हैं। इनमें से निशात, जेना और सुंदरियाल की चूंकी पोस्टिंग दिल्ली में हैं, लिहाजा उन्हें यहीं रहना है। और मैं 26 जुलाई को देश के एक खूबसूरत हिस्से ईटानगर जाने की तैयारी में जुटा हूं। नई जगह जाने का मन में निश्चित रूप से उत्साह और उमंग है, मगर पिछले छह महीने से परिवार का हिस्सा बन चुके अपने भाईयों जैसे दोस्तों से बिछुड़ना बहुत बुरा लग रहा है। पता नहीं अब जिंदगी के कौनसे मुकाम पर इन तमाम दोस्तों से मुलाकात होने का मौका मिले। सभी साथियों ने अपना-अपना सामान पैक कर लिया है। सभी के टिकट हो चुके हैं। दोस्तों ने शुक्रवार को खूब खरीदारी भी की और रात को पार्टी भी मनाई।
साथ ही एक दुखद खबर, हमारे अपने साथी शुभारंजन के पिताजी की असमय मृत्यु ने हम सब साथियों को दुख से भर दिया। ईश्वर शुभा को इस संकट की घड़ी में हिम्मत प्रदान करें। वे घर में सबसे बड़े हैं, लिहाजा घर की जिम्मेदारी अब उनके कंधों पर हैं। और अक्टुबर में उसकी शादी की तारीख भी तय थी। मगर जो कछु होय, राम रचि राखा.........
ऱाम राम.....
साथ ही एक दुखद खबर, हमारे अपने साथी शुभारंजन के पिताजी की असमय मृत्यु ने हम सब साथियों को दुख से भर दिया। ईश्वर शुभा को इस संकट की घड़ी में हिम्मत प्रदान करें। वे घर में सबसे बड़े हैं, लिहाजा घर की जिम्मेदारी अब उनके कंधों पर हैं। और अक्टुबर में उसकी शादी की तारीख भी तय थी। मगर जो कछु होय, राम रचि राखा.........
ऱाम राम.....
Sunday, June 13, 2010
भोजन के बहाने हुए इकट्ठा
मैंने पिछले ब्लाग में लिखा था कि क्लास रूम स्टडी समाप्त होने के बाद अब हम लोगों को मिलने के बहाने ढूंढ़ने पड़ेंगे। मगर सफी ने एक शगुफा छोड़ा कि क्यों नहीं फेमिली गेट-टुगेदर किया जाए, जिसमें सभी परिवार वाले यानी जिनकी शादी हो चुकी है, जो उनकी पत्निया दिल्ली में रहती है, उनके लिए। फिर दुगाॆ से बात हुई। तो योजना को विस्तार देते हुए यह तय हुआ कि क्यों नहीं सभी साथी इस कायॆक्रम में शामिल हों। सभी से हिस्सेदारी ली जाए। यह हिस्सेदारी लेने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी गई। मैंने सभी से पैसे इकट्ठे करने शुरु किए। शुरुआत की एफ-५ से। जगह तय हुई हास्टल का मैस। गणेश को मैन्यू की लिस्ट सौंपी। दिन तय हुआ ११ जून शुक्रवार शाम साढ़े छह बजे का। सात बजे साथियों ने कामन रूम में आना शुरु किया। मुझे लग रहा था कि शायद ३५ का आंकड़ा मुश्किल से पहुंचेगा। मगर आठ बजते-बजते २५ के करीब साथी और कईयों की धमॆपत्नी भी आ पहुंची थी। अब लगा कि यह आयोजन ठीक-ठाक ढंग से हो जाएगा। आनंद प्रधान सर भी आ चुके थे। मगर हमारी कुछ साथी शायद किसी वजह से नहीं आ पाई। उन वजहों का अभी तक खुलासा नहीं हुआ। अरविंदजी भी आ चुके थे। अब इंतजार हो रहा था हमारी कोसॆ डायरेक्टर शालिनी नारायण मैडम का। लगभग साढ़े नौ बजे वे आई। इसके बाद खाना शुरु हुआ तो रात साढ़े ग्यारह बजे तक चला। सभी ने इस दौरान मीडिया युनिट में अपने अटैचमेंट के अनुभवों को बांटा।
अब देखते हैं अगला बहाना क्या बनता है।
एक कविता---काबिलियत
छूटने का गम भी अजीब है
छूटने से पहले और छूटने के बाद
कई दिनों तक
रिसता रहता है
मन में यादों के तूफानों से
मगर यही नियती है
जुड़ना है
छूटना है
फिर
आगे बढ़ जाना है.
क्यूं टीस पालते हैं
यादों की
ये सताएंगी, रुलाएंगी
बेहतर है इन यादों का
यहीं पिंडदान कर दें
या आंखों के रस्ते
गंगा में बहा दें.
मगर
इतना आसान भी कहा हैं
ये तो अपेंडिक्स की तरह
चिपकी रहती हैं जेहन में
काट कर कौन फेंके
और काटना भी कौन चाहता है
इनकी रंगीनियतों से
जिंदगी कितनी हसीन होती है
ये तो वो जानता है
जिसके जेहन में
कुछ इंच जगह है
यादों को बसाने के लिए
मगर
यादों में बसने के लिए भी तो
कुछ काबिलियत चाहिए न
आजकल इसी काबिलियत को
इकट्ठा करने में जुटा हूं।
छूटने से पहले और छूटने के बाद
कई दिनों तक
रिसता रहता है
मन में यादों के तूफानों से
मगर यही नियती है
जुड़ना है
छूटना है
फिर
आगे बढ़ जाना है.
क्यूं टीस पालते हैं
यादों की
ये सताएंगी, रुलाएंगी
बेहतर है इन यादों का
यहीं पिंडदान कर दें
या आंखों के रस्ते
गंगा में बहा दें.
मगर
इतना आसान भी कहा हैं
ये तो अपेंडिक्स की तरह
चिपकी रहती हैं जेहन में
काट कर कौन फेंके
और काटना भी कौन चाहता है
इनकी रंगीनियतों से
जिंदगी कितनी हसीन होती है
ये तो वो जानता है
जिसके जेहन में
कुछ इंच जगह है
यादों को बसाने के लिए
मगर
यादों में बसने के लिए भी तो
कुछ काबिलियत चाहिए न
आजकल इसी काबिलियत को
इकट्ठा करने में जुटा हूं।
Wednesday, May 5, 2010
क्लासों का दौर खत्म, मिलने के लिए अब ढ़ूंढ़ेंगे बहाने...
जनवरी 4 से आईआईएमसी में एक बार फिर से यानी लगभग छह साल बाद छात्र के रूप में अपने भीतर छिपे छात्र को फिर से जिंदा किया। आईआईएस (भारतीय सूचना सेवा) के सभी प्रशिक्षुओं को छह महीने के प्रशिक्षण के लिए आईआईएमसी के हरे-भरे वातावरण में पढ़ने के लिए भेजा गया। रहने के लिए हॊस्टल दिया गया। पूरे चार महीने छात्र जीवन का भरपूर आनंद लेने के बाद 4 मई को हमारी छुट्टी हो गई। दरअसल हमारी क्लास रूम स्टडी अब अपने आखिरी पड़ाव पर आ पहुंची है। अब हमें मीडिया यूनिट में प्रेक्टिकल जानकारी के लिए जाना होगा। इस बीच खुशखबर यह है कि हम सभी अधिकारियों को कामनवेल्थ गेम में तीन महीने के लिए अटैच किया जा रहा है। उम्मीद है वहां हमें नए माहौल में काम करने का मौका मिलेगा। शायद बहुत कुछ नया सीखने को मिलेगा। सभी साथी इस बात से काफी खुश हैं। मगर ज्यादातर साथी लोग क्लास खत्म होने से निराश है। निराश इसलिए नहीं है कि क्लास नहीं हो पाएंगी...पढ़ नहीं पाएंगे, बल्कि निराश इसलिए हैं कि अब आपस में मिलने के बहाने तलाशने पड़ेंगे। बात क्लास की हो रही थी। ...क्लासों के दौरान कई फैकल्टी ऐसी भी आईं जिन्होंने हम पर मानसिक दबाव बनाते हुए हमसे कहा- विहेव लाइक आफिसर। मगर हम थे कि- आफिसर बनने को तैयार नहीं थे। इस दौरान पत्रकारिता की बहुत सी पुरानी बातों को नए अंदाज में सीखा। कुछ न्यूज लैटर बनाए। हालांकि आईआईएमसी के कंप्यूटरों में हिंदी फोंट की दिक्कतों के बावजूद हमने जैसे-तैसे करके न्यूज लैटर निकाले। इस दौरान हमने वीडियो कैमरे और स्टिल कैमरों पर भी हाथ साफ किए। एक डाक्युमेंट्री तैयार की। आईआईएमसी में पढ़ने आने वाले गुट निरपेक्ष देशों के छात्रों के ऊपर। उनके अनुभवों को इस डाक्युमेंट्री में शामिल किया। लगभग 24 विदेशी छात्र-छात्राओं के इस गुट में कईयों से अच्छी खासी दोस्ती भी हो गई। पिछले अप्रेल महीने की आखिरी तारीख को वे भी हमसे रुखसत हो गए।
इन दिनों हमारे बहुत से साथी लोग अभी तक अपने न्यूज लेटरों में उलझे हैं। कई लोग रेडियो असाइनमेंट तैयार कर रहे हैं। एक बात जो मैं कहना भूल गया. रेडियो टाक और रेडियो ड्रामा भी हमने तैयार किया। मैंने रेडियो टाक को रिकार्ड करवाया। इसी दौरान हमने एक कार्यक्रम भी किया,जिसका हर पहलू हम सभी साथियों ने तैयार किया। नाटक, गीत, शेरो-शायरी, सालसा जैसी तमाम विधाओं के जरिए हमने यहां कई यादों को संजोया और ये यादें तमाम उम्र हमारे जेहन में सूखे पत्तों की माफिक बनी रहेंगी। एक तस्वीर भी आपको यहां देखने को मिलेगी।
इन दिनों गरमी तेजी से पड़ रही है। लिहाजा सभी साथी लोग हास्टल के कमरों में एसी की ठंडी छाव में चैन की नींद निकाल रहे हैं। जब तक कुछ नई ताजा नहीं मिले...हम भी चैन लेते हैं।
जय-जय
इन दिनों हमारे बहुत से साथी लोग अभी तक अपने न्यूज लेटरों में उलझे हैं। कई लोग रेडियो असाइनमेंट तैयार कर रहे हैं। एक बात जो मैं कहना भूल गया. रेडियो टाक और रेडियो ड्रामा भी हमने तैयार किया। मैंने रेडियो टाक को रिकार्ड करवाया। इसी दौरान हमने एक कार्यक्रम भी किया,जिसका हर पहलू हम सभी साथियों ने तैयार किया। नाटक, गीत, शेरो-शायरी, सालसा जैसी तमाम विधाओं के जरिए हमने यहां कई यादों को संजोया और ये यादें तमाम उम्र हमारे जेहन में सूखे पत्तों की माफिक बनी रहेंगी। एक तस्वीर भी आपको यहां देखने को मिलेगी।
इन दिनों गरमी तेजी से पड़ रही है। लिहाजा सभी साथी लोग हास्टल के कमरों में एसी की ठंडी छाव में चैन की नींद निकाल रहे हैं। जब तक कुछ नई ताजा नहीं मिले...हम भी चैन लेते हैं।
जय-जय
Friday, April 9, 2010
आदिवासी नहीं वनवासी बंधु हैं वे
हमारा इतिहास विदेशी लोगों ने वह भी पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर लिखा है। बचाकुचा इतिहास हमारे देश के कथित बौद्धिक और वामपंथियों ने लिखा, जिन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि राम और कृष्ण इस देश में हुए या नहीं। और यहां के निवासियों के जीवन में ये महापुरुष कितना महत्व रखते हैं। अभी तक हम उसी इतिहास को ढोते चले आ रहे हैं। उनके दिए शब्दों को हम अपनी भाषा में इस्तेमाल करते हैं। ऐसा ही एक शब्द है आदिवासी, जो हमें इन दरिंदे इतिहासकारों ने दिए। मैं इन्हें दरिंदा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जो किसी समाज और देश की संस्कृति को तोड़ने या विकृत करने का काम करता है वह दरिंदा नहीं तो क्या है। हमारे लिए जंगलों में या वनों में रहने वाले बंधु आदिवासी नहीं है। आदिवासी का अर्थ होता है मूल निवासी। तो क्या बाकी लोग और कहीं से आए। इन्हें हमारे वैदिक साहित्य में अत्विका या वनवासी कहा गया है। बहुत ही साधारण सी बात है....यानी जो वनों में या जंगलों में रहते हैं वे वनवासी और जो नगर में रहते हैं नगरवासी। उन्हें क्यों वृहत हिंदु समाज से अलग करके देखा या दिखाया जा रहा है।
वे हमारे बंधु हैं। हमारा अटूट हिस्सा है। और बरसों से हमारे साथ रह रहे हैं। हां उनकी अपनी परंपराएं हैं, जो एक जगह वर्षों से रहने से बन जाती हैं। उनके अपने रीति-रिवाज है। वे अपने लोक देवताओं को मानते हैं। लेकिन उनके दिल में भगवान शिव, राम, कृष्ण, दुर्गा उसी तरह बसती है जैसे उनके लोक देवता। उनकी जड़ वैदिक धर्म से जुड़ी है। वे हमारे ही समाज के एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उन्हें हमसे अलग किया ही नहीं जा सकता। विकास की गति में जरूर वे पिछड़ गए हैं। लेकिन उन्हें समाज की मुख्य धारा में लाने का काम हमारा है। हमारे समाज का है। देश का है। एक साजिस तहत उन्हें हिंदु समाज से अलग करके बताया जा रहा है। महात्मा गांधी ने हमारे इन बंधुओं को गिरिजन कहकर संबोधित किया था। 19 सदी के आरंभ में इन्हें इसाई मिशनरियों ने ईसाई धर्म में परिवर्तित कर दिया था। लेकिन अब वक्त है कि समाज के अग्रणी संगठन और बौद्धिक लोग उन्हें अपने लेखन में शामिल करें। लेकिन कथित रूप से दलित साहित्यकारों की तरह नहीं। जिन्होंने सनातन धर्म के वृहत हिस्से में बाकी समाज के प्रति अपने लेखन से नफरत घोल रखी है। इसलिए समाज के बीच कड़ी बनकर काम करना होगा।
लेकिन यह विषय मैने इसलिए यहां उठाया कि कल यानी 8 अप्रेल 2010 को शाम को मैं न्यूज चैनल पर समाचार सुन रहा था तो अचानक मेरा रिमोट लेमन टीवी पर रुक गया। वहां छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के द्वारा सताए वनवासियों पर कोई स्टोरी चलाई जा रही थी। खास बात यह थी इस स्टोरी में बार-बार उन लोगों को वनवासी कह कर संबोधित किया जा रहा था। यह सुनकर अच्छा लगा कि न्यूज चैनलों में अभी तक शब्दों को लेकर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। काश सभी चैनल वाले ऐसा सोचें। अभी कुछ दिन पहले एक चैनल पर एक स्टोरी बताई जा रही थी जिसमें आदिमानव होमोसेपियंस को आधुनिक मानव का पूर्वज बताकर हर बात कही जा रही थी। जब हम मानते हैं कि हमारे पूर्वज आदिमानव नहीं है। यह सिर्फ एक सिध्दांत है, जिसे पश्चिम ने दिया है। हम उस सिध्दांत को ही सच मानकर उसके आधार खुद को क्यों साबित करें।
चैनल पर बोला गया हर शब्द बहुत कीमती होता है और उसके गहन अर्थ होते हैं. कृपया अपनी स्क्रिप्ट को आखिरी रूप देने से पहले उसके हर पहलू पर गौर करें।
नमस्कार।
बेगानी शादी में अब्दुल्ला हो रहे हैं दीवाने
मीडिया क्या बेचता है...किसी से छिपा नहीं है। मुझे अफसोस हो रहा है कि जब सानिया शोएब के साथ शादी रचाकर पाकिस्तान या दुबई चली जाएगी तो बेचारे हमारे न्यूज चैनल वाले क्या दिखाएंगे। मैं तो अभी से यह सोच-सोचकर तनाव में आया जा रहा हूं। शोएब-सानिया मामले में शोएब के प्रेस वार्ता को चार दिन होने के आए मगर अभी तक चैनल वाले बंधुओं ने सानिया के घर के सामने से अपने तंबू हटाए नहीं है। शुद्ध दुकान चलाने वाले इन चैनलों को क्या कहें, गाय का बछड़ा देखा है, जब उसे खोल दिया जाता है तो कैसे इधर-उधर भागता फिरता है..
इधर दंतेवाड़ा की दिल दहला देने वाली घटना हुई, मगर उनका दिल है कि सानिया से अभी तक भरा नहीं है। 70 से ज्यादा देश के जवान नक्सलियों की हिंसा के शिकार हो गए, पूरा देश इस चिंता में है कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए, क्या हल ढूंढ़ा जाए कि कथित नक्सली बंधु फिर से मुख्यधारा में शामिल हो जाए,मगर इन बेशर्म् इलेक्ट्रोनिक चैनल वालों के लिए अभी भी प्राथमिकता सानिया हैं। कल यानी 8 अप्रेल 2010 को भूत-प्रेतों को चैनल पर बेचने वाले इंडिया टीवी ने तो कमाल ही कर दिया। शोएब मलिक के कुनबे से दर्शकों को परिचय करवाने का लम्बा कार्यक्रम बना डाला। उसके मां-बाप, भाई, बहन, जीजा, दादी और पता नहीं कौन कौन...अपने लाड़ले की ताऱीफ कर रहे हैं। समझ में नहीं आता ये चैनल कब अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी समझेंगे। लगभग हर चैनल हर शाम प्राइम टाइम में आधा से एक घंटे का कार्यक्रम सानिया-शोएब नाटक को समर्पित रहता है। समझ में नहीं आता कि इस बेगानी शादी में अब्दुल्ला क्यों दीवाने हो रहे हैं।
इधर दंतेवाड़ा की दिल दहला देने वाली घटना हुई, मगर उनका दिल है कि सानिया से अभी तक भरा नहीं है। 70 से ज्यादा देश के जवान नक्सलियों की हिंसा के शिकार हो गए, पूरा देश इस चिंता में है कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए, क्या हल ढूंढ़ा जाए कि कथित नक्सली बंधु फिर से मुख्यधारा में शामिल हो जाए,मगर इन बेशर्म् इलेक्ट्रोनिक चैनल वालों के लिए अभी भी प्राथमिकता सानिया हैं। कल यानी 8 अप्रेल 2010 को भूत-प्रेतों को चैनल पर बेचने वाले इंडिया टीवी ने तो कमाल ही कर दिया। शोएब मलिक के कुनबे से दर्शकों को परिचय करवाने का लम्बा कार्यक्रम बना डाला। उसके मां-बाप, भाई, बहन, जीजा, दादी और पता नहीं कौन कौन...अपने लाड़ले की ताऱीफ कर रहे हैं। समझ में नहीं आता ये चैनल कब अपनी राष्ट्रीय जिम्मेदारी समझेंगे। लगभग हर चैनल हर शाम प्राइम टाइम में आधा से एक घंटे का कार्यक्रम सानिया-शोएब नाटक को समर्पित रहता है। समझ में नहीं आता कि इस बेगानी शादी में अब्दुल्ला क्यों दीवाने हो रहे हैं।
Monday, April 5, 2010
Sunday, April 4, 2010
उतार फेंको हर निशां, जो कलंक है देश पर
शनिवार को देश में बहस के लिए एक नया विषय मिल गया है। विषय नया इस मायने में है कि किसी राजनेता को ब्रिटिश परंपराओं को ढोने की बात याद आई। पर्यावरण को लेकर हमेशा चर्चा में रहने वाले अपने पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश ने ब्रिटिश कालीन गाउन उतार फेंकने की बात कही। मैं उनकी हिम्मत को दाद देता हूं। क्योंकि अब तक बड़े-बड़े नेता, राजनेता, बौद्धिक लोग भी समारोहों में इस गाउन को पहनकर फोटो खिंचवा चुके हैं। लेकिन किसी के मन को अभी तक यह बात चुभि तक नहीं। साथ में बधाई के पात्र भाजपा के मुरली मनोहर जोशी और बिहार के मुख्यमंत्री श्री नीतिश कुमार भी जिन्होंने उनके समर्थन में बातें कहीं। संभव है देश के कथित बौद्धिक वर्ग को इन बातों में बिलकुल रुचि नही हो। शायद वे जयराम रमेश, जोशी और कुमार को दकियानूस भी बता दें। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम इन अनावश्यक परंपराओं को ढोते ही रहेंगे, जिनका कोई वैज्ञानिक तर्क नहीं है। शायद इसलिए कि हमारे पास इन बातों को सोचने का वक्त नहीं है या फिर हम इस विषय में सोचना नहीं चाहते।
भले ही इन बातों से मोटे तौर पर कोई ज्यादा फर्क नजर नहीं आता हो, लेकिन हमारी आने वाली पीढ़ी के मन को हम गुलाम मानसिकता का बनाने का अपराध कर रहे हैं। मौजूदा दौर में सवाल यह उठता है कि जब तक हम अपनी युवा पीढ़ी को अपने राष्ट्र के संस्कार और यहां की उन्नत सांस्कृतिक विरासत नहीं सौपेंगे हमारी सनातन परंपराएं कैसे उन्नत होंगी। और इसके लिए देश के पढ़े-लिखे वर्ग को आगे आना पड़ेगा।
बात को आगे बढ़ाते हुए मैं टाई की बात करता हूं। अभी तक हमारे कारपोरेट सैक्टर और अब तो सरकारी क्षेत्र में भी टाई बांधना कथित जेंटलमेनशिप माना जाता है। इसका थोड़ा वैज्ञानिक परिक्षण करें। टाई क्यों....गले को हवा से बचाने के लिए। लेकिन भारत जैसै उष्ण देश में क्या यह वैज्ञानिक रूप से ठीक है। लेकिन हम अभी तक जेंटलमेन की परिभाषा में से टाई को बाहर नहीं कर सके हैं। यहां बात सिर्फ परिधान या पहनावे तक सीमित नहीं है। बात है खुद की मानसिकता की और वैचारिकता की। तब तक हम विचारों से पुष्ट नहीं होंगे, हम टाई बांधते रहेंगे।
स्वामी विवेकानन्द का उदाहरण देकर मैं विषय को समाप्त करूंगा। अमरीकी यात्रा के दौरान उनकी पोशाक संन्यासी के भगवा वस्त्र थे। रेल यात्रा के दौरान दो जेंटलमैन फिरंगियों ने उनके वस्त्र विन्यास को लेकर मजाक उड़ाया। आखिर जब स्वामीजी से नहीं रहा गया तो उन्होंने उनसे तीखे शब्दों में कहां- हममें और तुम लोगों में यही फर्क है। तुम लोग मनुष्य की पहचान उसके कपड़ों से करते हो और भारत में व्यक्ति की पहचान उसके गुणों से होती है।
Sunday, March 28, 2010
आईआईएमसी के हम लोग
भारतीय सूचना सेवा में चयन के बाद इन दिनों छह महीने के प्रशिङण के लिए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय जन संचार संस्थान में हैं। हमारे बैच में समूचे हिंदुस्तान से २९ साथी हैं। हम संस्थान के हास्टल में रह रहे हैं। इन दिनों हम ३० माचॆ को होने वाले कल्चरल फेस्ट के लिए कामन टीवी रूम में तैयारी में जुटे हैं। हारमोनियम, तबला और डरम के साथ रितेश कपूर, इबोमचा, सुनील कौल तैयारी में जुटे हैं। सफी मोहम्मद के निदेशन में एक नाटक की तैयारी भी की जा रही है। जुलाई तक यह मस्ती चलने वाली है। हमारा आपसी परिचय भी अब औपचारिकताओं की सीमाओं से परे जा चुका है। अब हम एक दूसरे के कमरे में बेधड़क आ जा सकते हैं।
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