इस बार समंदर से
भेंट करने की तीव्र इच्छा हमें सुदूर पश्चिमी तट दीव तक खींच ले गई।
यह शायद अमिताभ
बच्चन की अपील का नतीजा था कि कुछ दिन तो गुजारिए गुजरात में....या फिर कहीं न
कहीं जाने की असमंजस में से निकली कोई योजना। खैर, हमने इस बार समंदर देखने की
अपनी इच्छा को मरने नहीं दिया। सितंबर का पहला हफ्ता। कुछ सरकारी छुट्टियां और
कुछ निजी दोनों को मिलाकर हम निकल पड़े जयपुर से सुदूर दक्षिण पश्चिम की ओर से गुजरात
के अहमदाबाद से होते हुए केंद्र शासित दमन दीव के दीव द्वीप में। गुजरात की जमीन
की नाल से जुड़ा है यह दीव। लेकिन जैसे गुजरात की जमीन को छोड़कर दीव में प्रवेश
करते हैं यह एहसास हो जाता है कि आप अपनी मन मुताबिक जगह पर पहुंच गए हैं।
साफ-सुथरी चौड़ी सड़क। सड़क के किनारे समंदर हमारी ओर झांकता हुआ। और हम उसकी ओर
निहारते हुए। रेत के आदमी को समंदर इसी तरह प्यार करता है। दीव अरब सागर के समंदर
के खारे पानी से तीनों ओर से घिरा हुआ है और इसका जुड़वा हिस्सा दमन यहां से कई
मीलों दूर कोंकण तट पर मौजूद है। वहां जाने के लिए अलग से योजना बनानी होगी।
अहमदाबाद से अपनी निजी कार से लगभग चार सौ किलोमीटर से ज्यादा का सफर तय कर हम दीव
में अपने जालंधर बीच पर बुक करवाए राजकीय अतिथि गृह में पहुंच गए। अहमदाबाद से
यहां तक बिना सुस्ताए आठ घंटे में पहुंच सकते हैं। सड़कें बेहतरीन हैं गुजरात में।
कुछ अंदरूनी मौसमी सड़कों को छोड़ दें तो।
जालंधर बीच। बीच के
पास राजकीय अतिथि गृह। अगर बीच के पास रात बिताने का अवसर मिले तो कभी नहीं चूंके।
खासकर बच्चे साथ हों तो उनके लिए यह अद्भुत अनुभव होता है। चार जोड़ी हम लोग और
ढाई जोड़ी हमारे बच्चे। अतिथि गृहों में अपना सामान ठिकाने लगाकर समंदर देवता से
रूबरू होने उसके भीतर घुस गए। गरजता, चिंघाड़ता और उठा-पठक करता हुआ मानों वह
बरसों से हमारी राह देख रहा हो, या हम उसकी। कौन निर्णय करे ? हमें घुटनों तक छूने को
कोशिश करता हुआ। पीछे हटकर फिर तेजी से लहरों पर दौड़ता हुआ हमें अपनी आगोश में
लेने को तत्पर था। हमें भ्रम था यह हमसे हम बदन होने को लालायित है, मगर ऊपर शुक्ल
पक्ष का चंद्रमा न मालूम उसे क्या इशारा कर रहा था। मगर, हम अपने भ्रम में ही उस
रात भरपूर उसका दीदार करते रहे। सभी अपने हमराहियों के साथ। जालंधर बीच की पक्की
दीवारों पर बैठकर। यात्रा की थकान ने हमें बिस्तरों की ओर जाने को मजबूर कर दिया।
लेकिन उस रात न जाने समंदर क्या बातें करता रहा चांद से। उसके बदन पर टिके
व्यापारिक जहाज और नावें अपनी टिमटिमाती मद्धम बत्तियों के साथ झिलमिलाते रहे।
सुबह किसी मंजिल की और दौड़ पड़ने के लिए।
इन समंदरों से रूबरू
होना है तो आफ सीजन में इनसे मिलिए। आप तफ्सील से इन्हें गुनगुनाते देख सकते हैं।
इसलिए हमने भी सितंबर के शुरुआती हफ्ते को चुना। पूरा गुजरात इन दिनों आने वाले
दुर्गापूजा के लिए गरबा की तैयारियों में मशरूम था। दीव भी इससे अछूता नहीं था।
जगह जगह गरबा की तैयारियां यहां भी हो रही थी। और गणेश विसर्जन में लोग जुटे हुए
थे। गणेश चतुर्थी की सवारी में लोगों बॉलीवुड के गानों पर थिरक रहे थे। रास्ते साफ
सुथरे, व्यवस्थित यातायात व्यवस्था और करीने से सजी धजी दुकाने। गुजरात की तरह
यहां शराब बंदी नहीं है। लिहाजा मदिरालय के शौकीन गुजराती अपनी शामें अक्सर यहां
गुजारते नजर आ जाते हैं।
यात्रा के दूसरे दिन
की शुरुआत दीव के दूसरे बीच नागोवा के समंदर तट से हुई। रेतीला समंदर तट। सामने
खजूर के लंबे पेड़। नारियल पानी के दर्जनों ठेले। तीखी धूप। जलीय खेलों से भरपूर
सामग्री। लेकिन सैलानी अपने ही खेल में व्यस्त। कई युवा प्रेमी जोड़े समंदर को
साक्षी मानकर अपने प्यार का अफसाना गाते नजर आ रहे थे। बाहों में बाहें डाले समंदर
की सैर कर रहे थे। समंदर अपनी उफनती लहरों से सैलानियों को अपने किनारे पर पटक पर
उन्हें उनकी औकात को नापने का इशारा करता। लेकिन सैलानी भी कहां ये सब मानने को
तैयार होते हैं। हम भी नहीं थे। अपनी औकात से ज्यादा उसे मथते हुए उसमें उतरते जाते।
नमकीला पानी जब नथुनों से होकर गले में उतर जाता है तो समंदर के होने का एहसास जीभ
पर आ जाता है। जमकर तस्वीरें, सेल्फियां और ग्रुप फोटो उतारकर यहां से इस छोटे से
शहर से रूबरू होने के लिए निकल पड़े।
कई सदियां यहां पुर्तगाली
शासकों के पदचापों में गुजरी हैं। ऐसे में पुर्तगाली सभ्यता के अंश इस शहर में बिखरे
पड़े हैं। खासकर दीव का किला और उसकी बुनावट। पुर्तगालियों ने अपनी भरपूर ऊर्जा और
दिमाग इस किले की सुरक्षा में लगाया होगा। किले के अभेद्य बनाने के लिए यह समंदर
के किनारे बनाया गया है जिसकी अस्सी फीसदी चार दीवारी को एक गहरी खाई के माध्यम से
सुरक्षित किया गया है। किले की दीवारों पर अभी भी उस वक्त के लिखे लेख साफ नजर आते
हैं। सामने एक बड़ा सा क्रॉस, ईसाई धर्म का प्रतीक किले के ऊपर दिख जाता है। खंडहर
हो रहा यह किला सैलानियों को एक बेहतरीन सुकून देता है। दरअसल यहां से समंदर को
उसके पूरे यौवन रूप में देखा जा सकता है। भरा-पूरा। उफनता हुआ। साफ-नीला। चट्टानों
से मुठभेड़ करता हुआ। किले की दीवारों पर चिंघाड़ता हुआ। जैसे कोई पुराना वैर हो। इस छोटे से दरियाई शहर
की परिक्रमा कर हम अपनी नई मंजिल की ओर बढ़ गए। लेकिन हां, तीन दिन इस शहर में
आसानी से आनंद से गुजारे जा सकते हैं।
सोमनाथ से रूबरू
ऐतिहासिक सोमनाथ।
पौराणिक सोमनाथ। देश की आन बान शान का प्रतीक सोमनाथ। समंदर जैसे अंजुली भर भर
शिवलिंग पर जल चढ़ाता है। मुख्य मंदिर, जो लौहपुरुष सरदार पटेल के अथक प्रयासों से
खड़ा हुआ। उसी भव्य रूप में। उतनी श्रद्धा के साथ। मंदिर के ठीक दायी ओर ध्वंस अवस्था में अभी भी
मौजूद है पार्वती मंदिर। गजनवी और औरंगजेब की कुत्सित चेष्टाओं का प्रतीक। लेकिन
भारतीय संस्कृति के मूल तत्व तक वे कभी नहीं पहुंच पाए। काश पहुंच जाते तो उन्हें
इतिहास इस रूप में याद नहीं रखता। इतिहास के खलनायक। सोमवार का दिन था। महादेव के
अद्भुत रूप के दर्शन का हम सभी को सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्रद्धालु मंदिर के चारों
ओर महादेव में खोये हुए। अंतर्ध्यान। पीछे उफनता हुआ समंदर। महादेव से विदा लेकर
हम युगांधर कृष्ण के मोह में खिंचते द्वारिका की ओर बढ़ चले। दरअसल द्वारिका जाने
और न जाने को लेकर हमारे बीच मत विभाजन हो गया था। लेकिन हालात ऐसे बने कि बिना
द्वारिका गए अहमदाबाद नहीं जाया जा सकता था। लेकिन यह यात्रा काफी मजेदार थी।
माधवपुर कृष्ण-रुक्मणी
का विवाह स्थल
सोमनाथ से द्वारिका
के बीच, सोमनाथ से लगभग पचहत्तर किलोमीटर दूर और पोरबंदर से पहले। माधवपुर का
समंदर किनारा। जैसा नाम से मालूम हो जाता है। यहां भगवान कृष्ण और रुक्मणी का
विवाह संपन्न हुआ था। इसलिए इस जगह का नाम उन्हीं के नाम पर है। साफ-सुथरा समंदर
तट। जैसे ही घनी आबादी के कस्बों को छोड़कर सड़क पर आगे बढ़ते जाते हैं अचानक से
समंदर फिर से हमसे या हम समंदर से टकरा जाते हैं। लगभग निर्जन, शांत और उफनती
लहरें। किसी भी सैलानी का न चाहकर भी यहां उतरकर कुछ पल गुजारने की इच्छा तीव्र हो
जाती है। शायद कोई पौराणिक आशीर्वाद का प्रतिफल है। सड़क के किनारे रेतीले हिस्से
को पार कर जैसे ही नीचे उतरते हैं विशाल, अथाह जलराशि आंखों में भर जाती है। लहरे
जैसे इस समंदर पर किसी धावक की तरह हमारी और दौड़ती आ रही थी। लंबी लंबी फर्लांग
भरते हुए। और सड़क किनारे की रेत में आकर जैसे पस्त हो जाती।
यह समंदर तट भगवान
कृष्ण से जुड़ा हुआ है। पांच सहस्राब्दी और कुछ सदियां पीछे लौटिए। विदर्भ की
राजधानी कुंडिनपुर से शिशुपाल से विवाह को इनकार कर चुकी भीष्मक की पुत्री रुक्मणी
को लेकर कृष्ण चार सौ कोस की रथ यात्रा कर यहां रुक्मणी से विवाह कर उन्हें अभयदान
देते हैं । विवाह संपन्न कर यहां से बलराम और यादव सेना के साथ पचास कोस द्वारिका
अपनी राजधानी पहुंचते हैं।
हम भी समंदर की रेत
में अपने पैरों के निशान छोड़कर और यहां की यादों को कैमरों में दर्ज कर द्वारिका
की ओर बढ़ दिए। कृष्ण की सेना के पीछे पीछे।
द्वारिका
द्वारिका। भेंट
द्वारिका। हिंदुओं के चार धामों में एक । धार्मिक आस्था को छोड़िए। फिर से उस
इतिहास की ओर चलते हैं, जिस पर अभी भी काफी शोध किया जाना शेष है। पांच हजार वर्ष
पूर्व। समाज में शांति, नागरिकों को आतंक से बचाने और राष्ट्र की पश्चिमी सीमा को
मजबूत करने के मकसद से दूरदृष्टा युगांधर श्री कृष्ण ने मथुरा से 655 मील अर्थात
तेरह सौ किलोमीटर दूर अनजानी जगह पर समंदर के तट पर अपनी राजधानी की स्थापना की।
एक सुरक्षा प्रहरी के रूप में। क्योंकि उस
वक्त भी अरब सागर के उस पार से आज की तरह ही दस्युओं से भरी नावें आने का खतरा
मंडराता रहता था। इसके लिए द्वारिका में समंदर के बीच नाविक तैनात रहते थे। कथित बुद्धिजीवियों ने जिसे महज कल्पना और
पौराणिक घटनाक्रम ठहराकर नकारने की कोशिश की, पुरातत्व विशेषज्ञों ने समंदर के भीतर डूबी द्वारिका की खोजकर उसे समय
के सापेक्ष ऐतिहासिक तथ्य में बदल दिया है। द्वारिका स्थित मुख्य मंदिर से महज
डेढ़ मील की दूरी पर भेंट द्वारिका। यहीं सुदामा ने दीन हीन दशा में अपने बाल सखा
कृष्ण से भेंट की थी। यात्रियों को द्वारिका से भेंट द्वारिका तक ले जाने वाली
ज्यादातर नावों के मालिक मुस्लिम है। भेंट द्वारिका में भी मुस्लिम बहुसंख्या में
है। इसके बावजूद यहां का सामाजिक ताना-बाना काफी व्यावहारिक है। लोगों की
रोजी-रोटी दुकान, नाव और मछली पालन से चलती है।
द्वारिका देश की
पश्चिमी सीमा का आखिरी किनारा है। अगर यहां शाम के वक्त पहुंचते हैं तो सबसे पहले
सनसैट पॉइंट पहुंचिए। समंदर के सीने में समाते लाल सूर्ख सूरज को देखना दिलचस्प
अनुभव है।
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