Thursday, September 17, 2015

मैले आंचल से सिल्क रूट के मोड़ तक

हिंदी के महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के मैले आंचल अररिया में भारत नेपाल अंतरराष्ट्रीय सीमा पर जोगबनी कस्बे से नाथुला तक की यात्रा में मैदान, नदियां, तालाब, झील, धान के खेत, अनानास के बाग, चाय के बगीचे, पहाड़.... सब कुछ है। कई तरह की संस्कृतियां, रहन सहन और खानपान से रूबरू होते हुए भारत चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर नाथुला तक की यात्रा बहुत रोमांचक, रूहानी और उत्साह से भरी हुई थी। हिमालय की खूबसूरत वादियों में तीस्ता नदी की धारा से रूबरू हुए, जो हमें पीछे छोड़ती समंदर में समा जाने के लिए दौड़ी जा रही थी। जोगबनी से देश के पूर्वी सीमांत क्षेत्र और नेपाल होते हुए यात्रा प्रारंभ की। बिहार के उत्तरी क्षेत्र में सीमांचल क्षेत्र के असहज सड़क मार्ग में सहजता से दौड़ते हुए हमने पहाड़ों की रानी दार्जीलिंग की रियासत में पहुंचे। लेकिन इससे पहले हमने नेपाल के पहाड़ी कस्बे कन्याम का रूख किया। यहां तक का सफर हमने दार्जीलिंग होकर तय किया। हालांकि कन्याम तक जाने के रास्ते और भी हैं। मसलन आप नेपाल के विराटनगर होकर भी जा सकते हैं। लेकिन हमारी यात्रा के दौरान वहां मधेश आंदोलन चल रहा था। तनाव के क्षेत्र में होकर जाना यात्रा के स्वाद को कसैला कर सकता था। लिहाजा नेपाल-भारत के सीमा क्षेत्र में होकर जाना ही मुनासिब समझा।
दार्जिलिंग के रास्ते नेपाल की सीमा में घुसे। दार्जीलिंग में तीस्ता नदी पर बना पुल दोनों दोनों देशों को जोड़ता है। इस पुल के दोनों ओर सामान्य तौर पर दोनों देशों के नागरिकों को आवागमन जारी है। सुरक्षा के ज्यादा तामझाम यहां नजर नहीं आते। पुल के दोनों ओर ज्यादातर नेपाली समुदाय के लोग रहते हैं। दार्जीलिंग की सीमा क्षेत्र की दुकानों में नेपाली भाषा में लिखे इश्तहार दिख जाएंगे। भंसार, नेपाल में कस्टम को यही कहा जाता है, भरकर हम नेपाल की सीमा में घुस गए। नेपाल की हम दोनों परिवारों की यह दूसरी यात्रा थी। इससे पहले पिछले साल अक्टूबर महीने में काठमांडू की यादगार यात्रा की थी।
वुधवारे, विरतामोड़ होते हुए हम नेपाल के इलाम जिले का खूबसूरत कस्बा और पर्यटक स्थल कन्याम पहुंचे। यह देवी का स्थान है। लगभग तीन चार हजार सीढ़ियों पर चढ़कर देवी का मंदिर है। चाय की सुंदर पहाड़ियों पर घने बादलों को ओढ़े कन्याम कस्बा रास्ते में ही आपको रूकने के लिए बरबस मजबूर कर देता है। हरी-भरी पहाड़ियों पर सकड़ी लेकिन साफ सुथरी सड़क। जैसा कि पहाड़ियों में अमूमन होता है। सड़क के एक तरफ अपेक्षाकृत कम ऊंची पहाड़ी और दूसरी ओर ढलान वाली तलहटी। सड़कों पर चाय पत्तियां तोड़ने के लिए जाती रंग-बिरंगी पोशाकों में जातीं स्थानीय महिलाएं और युवतियों की सैनिकनुमा टुकड़ियां इन्हें यादों के रूप में सहेजने के लिए उत्साहित कर देती हैं। हमें यहां पहुंचने में दोपहर के लगभग बारह बज गए थे। लेकिन रास्तों में बने लकड़ी और खपरैल के घरों में खुली चाय की दुकानों पर बैठ बैठे कांपते हाथों को देखकर लगता है अभी अलसुबह है। पानी से भरे बादल सड़क पर अपना रास्ता बनाते हुए जाते नजर आते हैं और सड़क को गीला कर अपने निशान छोड़ पास ढलानों पर चाय के बागानों में गुम हो जाते हैं। थोड़ा आगे बढ़कर सड़क के किनारे खड़े लंबे चीड़ के दरख्तों से बने प्राकृतिक खूबसूरत दृश्य को कैमरों में कैद करने के लिए हम कार से नीचे उतरें। वहीं पास में लंबे पहाड़ी वृक्षों के झुरमुट में घुस गए, जहां बादल इन दरख्तों को चूम रहे थे और नतीजन हमारे ऊपर बारिश की झड़ी लग रही थी। हमारे कैमरे, मोबाइल, जूते और कपड़े सब कुछ भीग रहे थे। पेड़ों के नीचे खड़े घोड़े पानी पड़ने से हिन हिना रहे थे। शायद मालिक का इंतजार कर रहे थे।

कन्याम की यादों को कैमरे, मोबाइल कैमरों में कैद कर हम पशुपति नगर से नेपाल सीमा को फिर से पार कर मिरिक झील पहुंच गए। दोनों देशों की पशुपतिनगर सीमा पर भारत और नेपाल के कस्टम के कुछ अधिकारी बैठते हैं। यहां पहुंचते पहुंचते हमें शाम हो गई। यहीं हमारा पहला पड़ाव था। भारत और नेपाल की सीमाएं पहाड़ियों में इस तरह गूंथी हुई हैं कि आप कब नेपाल पहुंच गए और कब वापस अपने देश आ गए, मालूम ही नहीं चलता। शायद इसलिए भी कि हमारी और वहां की संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन और बोल चाल में बहुत ही मामूली सी बारीक रेखा है, जिसे महसूस करना बहुत मुश्किल होता है। यहां पुलिस के जवान आपसे बहुत तसल्ली से बात करते हैं। सड़कें छोटी हैं लेकिन बिना टूटी-फूटी और साफ सुथरी। मिरिक पहुंचने से पहले नेपाल-भारत अंतरराष्ट्रीय सीमा से पहले नेपाल में सीमाना कस्बा पड़ता है। सीमाना यानी सीमा क्षेत्र। यहां आपको बाजार चीनी में बने सभी सामान मिल जाएंगे। यहां से मिरिक महज दस से बारह किलोमीटर की दूरी पर रह जाता है।

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