Thursday, September 17, 2015

मैले आंचल से सिल्क रूट के मोड़ तक


- मुरारी गुप्ता-
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हिंदी के महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु के मैले आंचल अररिया में भारत नेपाल अंतरराष्ट्रीय सीमा पर जोगबनी कस्बे से नाथुला तक की यात्रा में मैदान, नदियां, तालाब, झील, धान के खेत, अनानास के बाग, चाय के बगीचे, पहाड़.... सब कुछ है। कई तरह की संस्कृतियां, रहन सहन और खानपान से रूबरू होते हुए भारत चीन की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर नाथुला तक की यात्रा बहुत रोमांचक, रूहानी और उत्साह से भरी हुई थी। हिमालय की खूबसूरत वादियों में तीस्ता नदी की धारा से रूबरू हुए, जो हमें पीछे छोड़ती समंदर में समा जाने के लिए दौड़ी जा रही थी। जोगबनी से देश के पूर्वी सीमांत क्षेत्र और नेपाल होते हुए यात्रा प्रारंभ की। बिहार के उत्तरी क्षेत्र में सीमांचल क्षेत्र के असहज सड़क मार्ग में सहजता से दौड़ते हुए हमने पहाड़ों की रानी दार्जीलिंग की रियासत में पहुंचे। लेकिन इससे पहले हमने नेपाल के पहाड़ी कस्बे कन्याम का रूख किया। यहां तक का सफर हमने दार्जीलिंग होकर तय किया। हालांकि कन्याम तक जाने के रास्ते और भी हैं। मसलन आप नेपाल के विराटनगर होकर भी जा सकते हैं। लेकिन हमारी यात्रा के दौरान वहां मधेश आंदोलन चल रहा था। तनाव के क्षेत्र में होकर जाना यात्रा के स्वाद को कसैला कर सकता था। लिहाजा नेपाल-भारत के सीमा क्षेत्र में होकर जाना ही मुनासिब समझा।

दार्जिलिंग के रास्ते नेपाल की सीमा में घुसे। दार्जीलिंग में तीस्ता नदी पर बना पुल दोनों दोनों देशों को जोड़ता है। इस पुल के दोनों ओर सामान्य तौर पर दोनों देशों के नागरिकों को आवागमन जारी है। सुरक्षा के ज्यादा तामझाम यहां नजर नहीं आते। पुल के दोनों ओर ज्यादातर नेपाली समुदाय के लोग रहते हैं। दार्जीलिंग की सीमा क्षेत्र की दुकानों में नेपाली भाषा में लिखे इश्तहार दिख जाएंगे। भंसार, नेपाल में कस्टम को यही कहा जाता है, भरकर हम नेपाल की सीमा में घुस गए। नेपाल की हम दोनों परिवारों की यह दूसरी यात्रा थी। इससे पहले पिछले साल अक्टूबर महीने में काठमांडू की यादगार यात्रा की थी।

वुधवारे, विरतामोड़ होते हुए हम नेपाल के इलाम जिले का खूबसूरत कस्बा और पर्यटक स्थल कन्याम पहुंचे। यह देवी का स्थान है। लगभग तीन चार हजार सीढ़ियों पर चढ़कर देवी का मंदिर है। चाय की सुंदर पहाड़ियों पर घने बादलों को ओढ़े कन्याम कस्बा रास्ते में ही आपको रूकने के लिए बरबस मजबूर कर देता है। हरी-भरी पहाड़ियों पर सकड़ी लेकिन साफ सुथरी सड़क। जैसा कि पहाड़ियों में अमूमन होता है। सड़क के एक तरफ अपेक्षाकृत कम ऊंची पहाड़ी और दूसरी ओर ढलान वाली तलहटी। सड़कों पर चाय पत्तियां तोड़ने के लिए जाती रंग-बिरंगी पोशाकों में जातीं स्थानीय महिलाएं और युवतियों की सैनिकनुमा टुकड़ियां इन्हें यादों के रूप में सहेजने के लिए उत्साहित कर देती हैं। हमें यहां पहुंचने में दोपहर के लगभग बारह बज गए थे। लेकिन रास्तों में बने लकड़ी और खपरैल के घरों में खुली चाय की दुकानों पर बैठ बैठे कांपते हाथों को देखकर लगता है अभी अलसुबह है। पानी से भरे बादल सड़क पर अपना रास्ता बनाते हुए जाते नजर आते हैं और सड़क को गीला कर अपने निशान छोड़ पास ढलानों पर चाय के बागानों में गुम हो जाते हैं। थोड़ा आगे बढ़कर सड़क के किनारे खड़े लंबे चीड़ के दरख्तों से बने प्राकृतिक खूबसूरत दृश्य को कैमरों में कैद करने के लिए हम कार से नीचे उतरें। वहीं पास में लंबे पहाड़ी वृक्षों के झुरमुट में घुस गए, जहां बादल इन दरख्तों को चूम रहे थे और नतीजन हमारे ऊपर बारिश की झड़ी लग रही थी। हमारे कैमरे, मोबाइल, जूते और कपड़े सब कुछ भीग रहे थे। पेड़ों के नीचे खड़े घोड़े पानी पड़ने से हिन हिना रहे थे। शायद मालिक का इंतजार कर रहे थे।

कन्याम की यादों को कैमरे, मोबाइल कैमरों में कैद कर हम पशुपति नगर से नेपाल सीमा को फिर से पार कर मिरिक झील पहुंच गए। दोनों देशों की पशुपतिनगर सीमा पर भारत और नेपाल के कस्टम के कुछ अधिकारी बैठते हैं। यहां पहुंचते पहुंचते हमें शाम हो गई। यहीं हमारा पहला पड़ाव था। भारत और नेपाल की सीमाएं पहाड़ियों में इस तरह गूंथी हुई हैं कि आप कब नेपाल पहुंच गए और कब वापस अपने देश आ गए, मालूम ही नहीं चलता। शायद इसलिए भी कि हमारी और वहां की संस्कृति, खान-पान, रहन-सहन और बोल चाल में बहुत ही मामूली सी बारीक रेखा है, जिसे महसूस करना बहुत मुश्किल होता है। यहां पुलिस के जवान आपसे बहुत तसल्ली से बात करते हैं। सड़कें छोटी हैं लेकिन बिना टूटी-फूटी और साफ सुथरी। मिरिक पहुंचने से पहले नेपाल-भारत अंतरराष्ट्रीय सीमा से पहले नेपाल में सीमाना कस्बा पड़ता है। सीमाना यानी सीमा क्षेत्र। यहां आपको बाजार चीनी में बने सभी सामान मिल जाएंगे। यहां से मिरिक महज दस से बारह किलोमीटर की दूरी पर रह जाता है।



नेपाल के कन्याम में मस्ती के मूड में

हाड़ियों के आंचल में फैली मिरिक झील

मिरिक पहुंचते पहुंचते सभी लोग लगभग थक गए। सौभाग्य से हमें ठहरने के लिए यहां के प्रमुख आकर्षण सुमेंदु झील के ठीक सामने के होटल के दूसरे और तीसरे माले पर दो कमरे मिल गए, जहां से भरी नजरों से पूरी झील को अपने जेहन में उतारा जा सकता था। शाम होते होते एक बादली ने पूरी झील को अपनी आगोश में भर लिया। फिर रात तक हम झील का दीदार नहीं कर सके। इसके लिए हमें अगली भोर का इंतजार करना पड़ा। मौसम साफ हो तो यहां से कंचनजंगा की पहाड़ियों को नंगी आंखों से देखा जा सकता है। लेकिन हमारी आंखों को यह सौभाग्य नहीं मिला।  लेकिन सुबह पूरी झील के लगभग साढ़े तीन किलोमीटर की परिधि में चहल कदमी करते हुए घूम कर झील और झील के किनारे बसी प्रकृति को आनंद को आंखों में भर लिया। बच्चों ने झील पर बने पुल पर जमकर तस्वीरें उतरवाई। आसपास की पहाड़ियों से झरनों से आया पानी इस झील का पेट भरता है और अपच पानी एक नाले से बाहर जाता रहता है। झील के किनारे ही सुंदर ढंग से बना बड़ा उद्यान भी है। और इस उद्यान के दूसरी ओर होटल और लॉज हैं। इस उद्यान में लगी बैंचों पर बैठकर आप अपनी मधुर स्मृतियों को झील को झूकर आती ठंडी हवाओं से मिलकर ताजा कर सकते हैं। झील की खूबसूरती का आनंद ले हम सुबह यहां से लगभग ढाई तीन किलोमीटर दूर पहाड़ी पर मौजूद प्राचीन बौद्ध मठ पहुंच गए। यह किसी तिब्बती मठ जैसा प्रतीत होता है। यहां गेरुए कपड़ों में बौद्ध भिक्षु धार्मिक क्रिया कलापों में व्यस्त नजर आए। मठ के अहाते में चौड़ी छत पर बच्चों ने खेलने का आनंद लिया। लेकिन अचानक इतना घना कोहरा छा गया कि एक दूसरे का हाथ भी दिखना बंद हो गया। पहाड़ों में बादल और कोहरे का यह खेल सामान्य है। हमें वापस गाड़ी की ओर दौड़ना पड़ा। जोरदार बारिश शुरू हो गई। हालांकि बारिश से कोहरा छट गया था। लेकिन हमने आगे बढ़ने का फैसला किया। महात्मा बुद्ध की आध्यात्मिक तरंगों को अपने साथ लेकर यहां से हमने दार्जीलिंग से सात किलोमीटर पहले घूम का रूख किया। यहां तक पहुंचने में लगभग ढाई घंटे का वक्त लगा।
मिरिक झील का विहंगम दृश्य

मिरिक झील 

पहाड़ों का रानी दार्जीलिंग


मिरिक झील से पहाड़ियों के रास्ते हम दार्जीलिंग के घूम कस्बे में पहुंच गए। दोपहर बारह बजे मिरिक के बौद्ध मठ से निकले तो शाम लगभग साढ़े तीन बजे खूबसूरत घूम पहुंच गए। यहां तक पहुंचने के लिए फिर से नेपाल-भारत सीमा के पशुपतिनगर होकर आना था। एक बार भारत-नेपाल सीमा से सटकर गुजरे। इस बीच दार्जीलिंग के प्रसिद्ध चाय के बागानों से रूबरू होने का भरपूर अवसर मिला। दूर ऊंची पहाड़ियों तक, जहां तक देखों, बस चाय ही चाय। यहां के जीवन और सांसों की ताजगी का मूल आधार। घूम से दार्जीलिंग जाते वक्त कुछ खूबसूरत राहों में कुछ छोटी दुकानें दिख जाती हैं। यहां कुछ पल रुककर चाय का चुस्कियों का जरूर आनंद लीजिए। चाय के प्याले को जुबान से लगाते ही ऐसा लगता है पास के बागान से अभी अभी चाय की पत्तियों को तोड़कर ताजा चाय बनाई है। महज दस रूपए में एक कप। मन करें तो तीन-चार कप चाय पी जा सकती है। कुछ भूख हो तो यहां दस बीस रूपए में तीखे मसाले के साथ चने-मुरमुरे प्याज के साथ उपलब्ध हैं। बाजारों में चाय की हजारों किस्में मौजूद हैं। लेकिन इन बागानों को देखकर लगता है चाय की सिर्फ एक ही किस्म है। चीड़ और देवदार के ऊंचे आसमां को छूते दरख्तों के बीच चाय की पहाड़ियां किसी नवेली दुल्हन सी महसूस होती है। करीने से खड़ी एक समान ऊंचाई में, शर्मीली सी जैसे ढेर सारा इत्र लगाए हुए हो। इनकी महक से खुद नागराज इनके चरणों में आ बैठते हैं। स्थानीय लोग बताते हैं कि चाय पत्तियां तोड़ने के लिए पैरों में खास तरह के जूते पहनने पड़ते हैं।   
गुडरिक सहित कई टी एस्टेट के यहां बड़े साइन बोर्ड देखे जा सकते हैं। बागानों के बीच सड़क से ही टी ऐस्टेट के मैनेजरों के आलिशान और खूबसूरत बंगले नजर आते हैं। इन रास्तों को पार कर उस पार जाने को मन ही नहीं करता। सोचते हैं इन दृश्यों को स्थायी रूप से आंखों में बसाया जाए। रास्तों में गाड़ियों की ज्यादा भीड़ भाड़ नहीं है। इसकी वजह है हमने घूमने का वक्त थोड़ा बेवक्त चुना, जो हमारे लिए फायदेमंद रहा। 
 अगर आपको भांति भांति के लोगों को देखने में बहुत ज्यादा रूचि नहीं है तो पर्यटन का सुस्त मौसम यानी आफ सीजन घूमने के लिए बहुत उम्दा वक्त होता है। आपको ज्यादा भीड़-भीड़, बाजारों में मारा-मारी से निजात मिल जाती है और पर्यटक स्थलों का भरपूर लुत्फ उठाया जा सकता है। घूम में हमें इसका फायदा मिला। होटल आसानी से मिल गया और टॉय ट्रेन में आसानी से सीट भी। दार्जीलिंग से देश के सबसे ऊंचे लगभग सात हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित रेलवे स्टेशन घूम तक का सात किलोमीटर का ऐतिहासिक टॉय ट्रेन के सफर का जमकर लुत्फ लिया। पर्यटन के मौसम में इस ट्रेन का टिकट बहुत मुश्किल से मिल पाता है। यहां आप भाप, डीजल और कोयले तीनों इंजनों से चलने वाली दो डिब्बों की ट्राम का आनंद उठा सकते हैं।
विश्व विरासत में शामिल इस ट्रेन को अंग्रेजों ने 1879 से 1881 के बीच बनवाया था। दार्जीलिंग शहर की नसों में होकर नैरो गेज पर चलने वाली इस ट्रेन में बैठना यूं तो बहुत सामान्य है। लेकिन इसकी कांचदार खिड़कियों से बाहर का नजारा इसमें बैठने का असली एहसास करवा देता है। लगभग बीस से तीस किलोमीटर प्रति घंटा की गति से चलती ट्रेन कब सड़क पर फंसे ट्रेफिक के कारण रूक जाए कहां नहीं जा सकता। इस दौरान वहां अपने बच्चों के लिए आसपास के दुकानों से आप खाने-पीने की चीजें खरीदने का दुस्साहस कर सकते हैं। दार्जिलिंग शहर के बाजारों में दुकानों के बाहर फैंसी कपड़ों को छूती हुई और दूसरी ओर पहाड़ी पर चिपकी हरियाली को चूमती हुई दो डिब्बों की ट्रेन पूरे शहर से महज पैंतालीस मिनट में रूबरू करवा देती है। मौसम साफ हो तो ऊंची पहाड़ियों, गहरी खाइयों और खूबसूरत शहर से भी दीदार किया जा सकता है। हम इस मामले में सौभाग्यशाली रहे। घूम से पहले यह बतालिया लूप में आठ के आकार में घूमती है तो नजारा बहुत दिलचस्प होता है।     
दार्जिलिंग हिमालयन रेलवे की यह ट्रेन दार्जीलिंग से न्यू जलपाईगुड़ी तक का लगभग 78 किलोमीटर का सफर करती है। बताते हैं कि साल 2011 में भूकंप के कारण इसे कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया था। एक और बात, दार्जीलिंग स्टेशन पर आप महज पांच रूपए में लेमन टी का आनंद जरूर उठाइए। यह चाय मन में ताजगी भर देती है। चाय के कपों में उठती सफेद वाष्प किसी अच्छी खासी ठंड का एहसास देती है। इस स्टेशन पर बैठकर चाय पीने का एहसास यूरोपीय देश के किसी ठंड और बर्फीले स्थान पर चाय पीने की कल्पना करने में भी कोई हर्ज नहीं है। अगर आपने रणवीर कपूर की बरफी देखी है, तो बरफी का दार्जीलिंग स्क्रीन से निकलकर आपकी आंखों के सामने आ जाएगा।


अगर आप सिर्फ शाकाहारी खाने के शौकीन है, तो यहां चिंतित होने की कोई वजह नहीं है। पूरे शहर में शाकाहारी खाने के बेहतरीन रेस्त्रां मिल जाएंगे। थाली प्रणाली यहां भी जारी है। लगभग डेढ़ सौ से दो सौ रूपए में उम्दा खाना यहां मिल जाएगा। साथ में मीठी सौंफ भी। बाजारों में ज्यादातर नेपाली समुदाय के लोगों की दुकानें हैं। बड़े मॉल हैं। जिनमें खरीदारी की जा सकती है। बाजार जल्द बंद हो जाते हैं। मौसम का कोई भरोसा नहीं। बाजारों में दोनों ओर कम से कम चार से पांच मंजिल के घर हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है इस नाजुक से पहाड़ी शहर पर कितना दबाव है। और हां, अगर आप अपनी व्यक्तिगत गाड़ी से गए हैं, तो पार्किंग की जगह ढूंढ़ लें। पार्किंग यहां की बड़ी समस्या है। खैर, हमें इन समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ा। दार्जीलिंग को अलविदा कह अगले पड़ाव के लिए निकल पड़ें। गैंगटोक के लिए। खूबसूरत पहाड़ियों की जवां मुस्करहाटों को आंखों में भरते हुए। लामहट्टा पहुंच गए।




घूम में ट्रेन के इंतजार में


घूम में नैरो गेज लाइन पर 



लामह्ट्टा में मस्ती के मूड में 


मिरिक से दार्जीलिंग के रास्ते चाय की दुकान के पास

गैंगटोक से चारधाम के रास्ते में फूटते झरने


ग्रामीण पर्यटन का खूबसूरत नजारा- लामहट्टा



अगर आप नव विवाहित हैं तो दार्जीलिंग मत रूकिए। दार्जीलिंग से आगे बढ़िए। लगभग 23 किलोमीटर की दूरी पर एक खूबसूरत जगह नजर आएगी- लामहट्टा। सब कुछ भूलकर यहां एकांत में आप अपने से बात कर सकते हैं। अपने प्रेमी के साथ घंटों बिता सकते हैं। राज्य सरकार और स्थानीय ग्रामीणों की मदद से ग्रामीण पर्यटन के रूप में तैयार इस प्राकृतिक आवास में कम से दो दिन गुजारे जा सकते हैं। इस कस्बे में शेरपा, यालमो, तमांग, भूटिया, दुकपा और छेत्री जनजाती के लोग रहते हैं। लोगों ने अपने आवास पर पर्यटकों के लिए रहने के लिए एक-दो कमरों का होमस्टे तैयार किया है। यहां पंद्रह कमरे और लगभग 23 बैड उपलब्ध हैं।
लामहट्टा में एक और पहाड़ी पर सुंदर पार्क के रूप में तैयार किया गया है। इस पहाड़ी के ऊपर लगभग एक से डेढ़ किलोमीटर की ऊंचाई पर सुंदर और छोटी झील है। ऊपर तक जाने के लिए ट्रेकिंग का रास्ता बनाया हुआ है। चट्टानी पत्थरों से एक आड़ी-तिरछी पगडंडी बनाई है। पहले तो बच्चों को नीचे ही छोड़कर जाने का मानस बनाया। लेकिन कोई भी रूकने को तैयार नहीं था। फिर चढ़ना शुरू किया तो सभी बिना थके झील के किनारे तक पहुंच गए। पगडंडी के रास्ते बीच बीच में विश्राम करने के लिए बांस की कई बैठकें भी बनाई हुई है, जहां सांसों को आराम दिया जा सकता है। यहां तक पहुंचने में हमें 25 से 30 मिनट लगे। जैसे ही बादलों से नहाई झील के किनारे पहुंचते हैं एक गहरा सुकून मिलता है। झील को जी भर के देखिए। झील को चारों ओर सुरक्षा के लिए छोटे पोल पर बंधी रस्सी का सुरक्षा घेरा बनाया हुआ है। झील के साफ पानी से इसकी तलहटी साफ नजर आती है। इस दौरान हल्की बारिश का भी दौर शुरू हो गया था, जिसने हमारी ट्रेकिंग को और भी मजेदार बना दिया।


झील के किनारे हम सभी ने जमकर तस्वीरें उतारी। झील के चारों और बांस से बनी बैंच लगी हुई हैं। इन बैंचों पर बैठकर आप घंटों बतियाएं। झील को निहारें। यकीन मानिए यहां वक्त ठहर सा जाएगा। मानो आप जल के देवताओं से बात कर रहे हों। झील की यादों को हमने कैमरों और मोबाइल में कैद कर लिया। इस दौरान चीड़ के पेड़ों पर बैठे बादलों से टपकती बूंदें मन को प्रफुल्लित कर देती हैं। इन तमाम स्मरणों को आंखों में समेटे फिर उसी पगडंडी से हम नीचे बने उद्यान में लौट आए।  उद्यान के दूसरी ओर एक कतार में घरों में बने होम स्टे नंबर 89 की मालिक श्रीमती सुजाता छेत्री के घर में हमने चाय नाश्ता किया और हिमालय की ओर निकल पड़। महादेव के घर की ओर। गैंगटोक की ओर।
लामहट्टा में झील के पास एक बड़ी चट्टान पर कल्पी




देश के सबसे ऊंचे रेलवे स्टेशन घूम


खूबसूरत गैंगटोक

शुक्रवार चार सितंबर की शाम को हम गैंगटोक पहुंच गए। लामहट्टा से जैसे ही गैंगटोक की ओर बढ़ना शुरू करते हैं, खूबसूरत वादियां अभिवादन के लिए तैयार रहती हैं। लामहट्टा से लगभग सत्तर किलोमीटर की दूरी हमने लगभग तीन घंटे में पूरी कर ली। राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या दस हमें गैंगटोक तक ले जाता है। इस रास्ते पर थोड़ा आगे बढ़ने पर तीस्ता नदी ने दामन थाम लिया और पूरे रास्ते इठलाती हुई हमें गैंगटोक तक छोड़ दिया। वैसे तो गैंगटोक जाते वक्त हम उसकी धाराओं की मुखालफत करते हैं। हम उसकी धारा के विपरीत ऊपर की ओर बढ़ते हैं, इस वादे के साथ कि जब वापस आएंगे तो साथ साथ चलेंगे। खैर, तीस्ता सर्पिली गति में मस्त है। बीच-बीच में इसके सीने में बने पावर प्रोजेक्ट से यह लोगों के घरों में रोशनी भी भर रही है। किनारे पर दोनों ओर बांस, देवदार, चीड़ और केलों के पेड़ इसका इस्तकबाल कर रहे हैं। तीस्ता पर बने पुल के एक और दार्जीलिंग की सीमा समाप्त हो जाती है और दूसरी ओर सिक्किम पुलिस के सिपाही ड्रेगननुमा रंगीन चूने पत्थर के बने भव्य दरवाजों पर यात्रियों का अभिवादन करते हैं। थोड़ी पूछताझ, और थोड़ी ताक-झाक करते हैं फिर जाने देते हैं।  
प्रशासनिक नजरिए से सिक्किम के चार हिस्सें हैं उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम। राज्य की राजधानी गैंगटोक पूर्वी के हिस्से का मुख्यालय है। गैंगटोक पहाड़ी शहर है। जाहिर है सड़कें बहुत ज्यादा चौड़ी नहीं है। लेकिन आमने-सामने से गाड़िया आसानी से गुजर सकती है। और सड़क के एक किनारे पर लोहे से बनी मजबूत रैलिंग से सुरक्षित फुटपाथ से पर्यटक और स्थानीय लोग एक जगह से दूसरी जगह तक जा सकते हैं। पूरे गैंगटोक शहर में यह व्यवस्था है। सड़क पार करने के लिए भी ओवर ब्रिज बनाए गए हैं।
हमें यहां के प्रसिद्ध महात्मा गांधी बाजार के थोड़ा ऊपर एक सुंदर सा होटल रहने के लिए मिल गया। इस बाजार के पास ही यहां की बत्तीस सदस्यों वाली विधानसभा का सुंदर भवन है। यह बाजार क्यों खास है, इस पर बात करते हैं। और हां, इस बाजार से देश के दूसरे पर्यटन शहर भी सीख सकते हैं। इस बाजार में किसी भी तरह का वाहन ले जाने पर पूरी तरह रोक है। बाजार के प्रवेश पर पुलिस कर्मी तैनात हैं। बाजार की चौड़ाई लगभग अस्सी फीट होगी। दोनों ओर कपड़े, रेस्त्रा, माल, गिफ्ट आइटम से लेकर हर तरह का चीन उत्पादित माल भी मौजूद है। सड़क टाइल्स की बनी है। सड़क के बीच बने हरे भरे पक्के डिवाइडर के दोनों से हर दस फीट की दूरी पर लोहे की बैंचे हैं, जिन पर बैठकर बाजार, खाने और गपियाने का आनंद लीजिए। डिवाइडर पर खूबसूरत सजावटी पौधे और फूलों की झाड़ियां हैं, जो बाजार की खूबसूरती और बढ़ा देती हैं। और हां, हर बीस फीट की दूरी पर चेतावनी बोर्ड भी है, जिसमें नेपाली भाषा में साफ लिखा...यहां गंदगी फैलाने पर पांच हजार रूपए का जुर्माना है। शाम के वक्त इस बाजार में टहलिए। आप सोचेंगे, काश सभी जगह ऐसे बाजार भी हों।
नेपाली भाषा से याद आया। आप पूरे सिक्किम में अपनी भाषा, हिंदी में सहजता से बात कर सकते हैं। वैसे यहां नेपाली, लेप्चा और भूटिया भाषा और बोलियों का चलन है। भारतीय सूचना सेवा के आकाशवाणी में अधिकारी श्रीमान विनयराज तिवारी ने मुलाकात में बताया कि आकाशवाणी गैंगटोक से हर शाम तीनों भाषाओं में समाचार प्रसारित किए जाते हैं। गांव देहात में ये समाचार सुने जाते हैं। खासकर सेना के लिए ये समाचार सूचना के अहम स्रोत हैं।

यहां युवक-युवतियों को दक्षिण-पूर्वी एशियाइ देशों की तर्ज पर स्टाइलिश लुक में देखा जा सकता है। मुख्य रूप से हिंदू और बौद्ध यहां के रहवासी हैं। थोड़े बहुत ईसाई। बड़ी संख्या में बौद्ध मठ हैं। गेरुए धारी बौद्ध भिक्षु प्राय दिख जाते हैं। शिव यहां के आराध्य है। हर सड़क, मोड़ और बस्तियों में शिव मंदिर दिखाई देते हैं। यहां तक पहाड़ियों में भी छोटे-बड़े शिव मंदिर बने हुए हैं। आखिरकार महादेव का घर जो है। अगले दिन हम भारत चीन सीमा पर नाथूला जाने के लिए उत्साहित थे।

गैंगटोक का खूबसूरत महात्मा गांधी बाजार 

गैंगटोक का खूबसूरत महात्मा गांधी बाजार 
गैंगटोक का खूबसूरत महात्मा गांधी बाजार 



गैंगटोक का खूबसूरत महात्मा गांधी बाजार 



नाथूला: जब सांसें उखड़ने लगती हैं
कुछ महीनों पहले जब प्रधानमंत्री की पहल पर चीन ने नाथुला दर्रे को कैलास मानसरोवर के लिए एक और वैकल्पिक रास्ते के रूप में खोल दिया, तो इस दर्रे पर आम पर्यटन के साथ धार्मिक पर्यटन से जुड़ी गतिविधियां भी बढ़ गई थीं। हम मानसरोवर तो नहीं, लेकिन इस रास्ते के जरिए महादेव के परमधाम कैलास मानसरोवर तक की मुश्किल यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं के अहम पड़ाव क्योंगनोस्ला होते हुए नाथुला के लिए रवाना हुए। गैंगटोक में दूसरे दिन यानी पांच सितंबर शनिवार की सुबह आठ बजे हम नाथूला के लिए निकल लिए। नाथूला जाने के लिए स्थानीय टैक्सी लेनी पड़ती है। इससे पहले नाथूला जाने वाले सभी लोगों का पंजीकरण करना अनिवार्य होता है, जिसके लिए हमारे स्थानीय सहयोगी ने एक दिन पहले हम सभी से पहचान पत्र की प्रतिलिपि और दो पासपोर्ट आकार की तस्वीरें लेकर सभी औपचारिकताएं पूरी कर ली थी।
नाथूला जाना देशकाल और हालात पर निर्भर करता है। अगर उस दिन बारिश हो गई, तो आपको मायूस होना पड़ेगा। उस दिन या हो सकता है अगले कई दिन आप वहां नहीं जा सकें। इस मामले में हम सौभाग्यशाली रहे। सुबह से ही मौसम साफ था और आसमान में सूरज चमक रहा था। गैंगटोक से हनुमान टोक होते हुए नाथूला तक की लगभग 54 किलोमीटर की चढ़ाई हमने साढ़े तीन घंटे में पूरी कर ली।  यह रास्ता ऐतिहासिक सिल्क रूट का हिस्सा है जो तिब्बत के ल्हासा को सुदूर बंगाल के मैदानों से जोड़ता है। यह भारत और चीन के बीच सड़क मार्ग से व्यापार के एकमात्र रास्ता है। लगभग चौदह हजार फीट से ज्यादा की ऊंचाई पर जब कार से उतरते हैं तो दिमाग की कोशिकाएं लड़खड़ाना शुरू कर देती है और दिमाग में तंत्रिका तंत्र काम करना बंद कर देता हैं। यहां हवा का दबाव बहुत कम हो जाता है तो उन्हें प्राणवायु आक्सीजन की खुराक कम पड़ने लगती है। सामान्य हालत में आने में काफी वक्त लगता है। हम में से मुझ सहित एक दो को इसका एहसास हुआ। लेकिन शायद बच्चों के दिमाग में ईश्वर आक्सीजन का अतिरिक्त सिलैंडर रखता है। हमारे तीनों बच्चे एकदम सामान्य रहे और एकाध की जिद को छोड़ दे तो खुश और उत्साही भी रहे।
यहां कैमरे ले जाने की इजाजत नहीं है। भारतीय सीमा में हमारे सैनिक पूरी मुस्तैदी से खड़े हैं। उनकी मुस्कान बताती है कि भारतीय पर्यटकों का यहां तक पहुंचना उन्हें कितना खुशगवार लगता है। रोते बच्चों को खुश करने के लिए अपनी जेब से टाफियां निकाल उन्हें मनाते भी हैं। वहां तैनात सैनिकों से बात हुई तो उन्होंने बताया कि चीन की ओर से भी पर्यटक सीमा पर आते हैं। लेकिन बहुत कम संख्या में। यहां नो मैन्स लैंड नहीं है। सीमा के दोनों ओर दोनों देशों की सीमा चौकियों के बीच नंगी पहाड़ियों पर सिर्फ तार खिंचा हुआ है, जिसके उस पार हाथ में कैमरे लिए एक चीनी सैनिक खड़ा नजर आता है। उन तारों को पकड़कर अपनी चारों उंगलियों को कुल पल के लिए चीन अधिकृत क्षेत्र में दाखिल कर सकते हैं। उस पार खड़े लगभग पच्चीस साल के चीनी सैनिक से कुछ भारतीय पर्यटक हाथ मिलाने की कोशिश करते हैं तो वह भी  खुशी-खुशी हाथ बढ़ा देता है, लेकिन तारों के उस पार ही। और भारतीय पर्यटकों की कुछ तस्वीरें भी उतारता है। पता नहीं क्यों। सीमा रेखा के इस पार खड़ा हमारा सैनिक सीमा रेखा पर कदम रखने वाले उत्साही पर्यटकों को सावचेत करता है कि हम ऐसा नहीं करें। बात ही बातों में वह हमें बताता है कि उन्हें थोड़ी बहुत चीनी भाषा आती है, जिससे दूसरी ओर के सैनिकों से कभी कभी हाय हैलो हो जाती है। लेकिन चीनी सैनिक न अंग्रेजी और न ही हिंदी समझते हैं। ऊपरी तौर पर यहां तनाव एकदम शून्य है। सीमा पर पूरे पहाड़ पर नजर आती पक्की दीवार दोनों देशों की सीमाओं की पहचान कराती है। लेकिन प्रकृति इन सीमाओं को कहां मानती हैं। थोड़ी देर में एक घना बादल पूरी सीमा रेखा को ढक लेता है। अब बादल और उसकी बूंदों को कैसे बांटें।
यहां शनिवार और रविवार को व्यापार बंद रहता है। हम शनिवार को पहुंचे थे, लिहाजा उस दिन दोनों ओर से दरवाजे बंद थे। कस्टम के अधिकारियों के कार्यालय भी बंद थे। स्थानीय लोग बताते हैं कि कैलाश मानसरोवर की यात्रा का रास्ता नाथुला से खुलने के बाद गैंगटोक से नाथू ला की सड़क की चमक और ज्यादा हो गई। नाथूला से पच्चीस किलोमीटर पहले क्योंगनोस्ला में मानसरोवर की यात्रा के लिए आने वाले यात्रियों के स्वास्थ्य को यहां के मौसम के अनूरूप बनाने के लिए पहले दो दिन ठहराया जाता है। इसके लिए वहां एक कार्यालय भी बना हुआ है। पूरे रास्ते में खतरनाक ढंग से भूस्खलन के भयावह दृश्य हैं, जिन्हें सीमा सड़क संगठन के मुस्तैद कार्मिक साफ करते नजर आते हैं। सर्दियों के दिनों में यहां लोग भारी बर्फबारी से बचने के लिए बख्तरबंद घर बनाते हैं। ये टैंकनुमा दिखते हैं। इनमें बाहर देखने के लिए छोटी छोटी खिड़कियां होती हैं। भीतर गर्माहट के लिए संभवतया कुछ व्यवस्था होती होगी। पूरे रास्ते में ज्यादातर सैनिकों की सुंदर छावनियां हैं। और हां, सैनिकों को स्थानीय गांवों में जाना मना है।
ठंडे पहाड़ी रास्तों का जो सबसे मुश्किल अनुभव है वह है डीजल गाड़ियो से निकलने वाला धुंआ और इसके तत्व, जो सीधे नाक के रास्ते फैफड़ों में घुस जाते हैं। फिर दिमाग तक पहुंच आपकी यात्रा का सारा आनंद किरकिरा कर देते हैं। असल में, पहाड़ों की नमी वाली हवा भारी होती है और गाड़ियों से निकलने वाले धुआं में मौजूद नाइट्रोजन आक्साइड, सुक्ष्म कण और हाइड्रो कार्बन इस नमी के कारण नीचे ही रह जाते हैं। हवा में घुलकर वाष्पित नहीं हो पाते। फिर कार की खिड़कियों में होकर सीधे मन-मस्तिष्क पर धावा बोलते हैं। यही वजह है कि पहाड़ी क्षेत्रों में अक्सर लोग मुंह पर हरी पट्टीनुमा एक मास्क पहने देखे जा सकते हैं। इसका उपाय है आप वादियों की ठंडी हवाओं से महरूम रहकर गाड़ी में शीशा चढ़ाइए।
नाथुला से नीचे उतरकर वापसी में बीच में बाबा हरभजन के मंदिर के दर्शन किए। प्रसाद लिया। यात्रियों की सुविधा के लिए सेना से बाबा की मूल समाधि से नौ किलोमीटर पहले यह मंदिर बना रखा है। यहां बाबा का मंदिर, कार्यालय और आरामघर है। पास में एक सैनिक तैनात है जो, अगर यहां आने को यादगार बनाना चाहते हैं तो आपको यहां आने का निश्चित राशि लेकर प्रमाणपत्र नुमा एक दस्तावेज उपलब्ध करवाता है। अगर बाबा की कहानी सुनने की इच्छा है तो यह सैनिक पूरे मन से पूरी कहानी सुनाता है। यहां पास ही एक रेस्त्रां भी हैं। इस रेस्त्रां में आप गरमा गरम आलू के समोसे का स्वाद ले सकते हैं। मंदिर की तलहटी में एक छोटी नदी बहती है, जिसके उस पार शिव की छोटी प्रतिमा है, जिसे देखकर लगता है महादेव अनंत काल से यहां तपस्या कर रहे हैं। थोड़ी देर में ही घनघोर बादल चारों ओर फैल जाते हैं और हाथ से हाथ दिखना भी बंद हो जाता है। बारिश शुरू हो जाती है। बारिश के बीचों-बीच यहां भी सांसें हल्की उखड़ी सी महसूस होती हैं। अनुभव होता है प्राणवायु की कमी के बावजूद सैनिक पूरी दक्षता से सीमा चौकी पर टिके हुए हैं।

रास्ते से लगभग सत्रह किलोमीटर नीचे उतरकर रास्ते में एक झील है-सोमगो। इस चांगु झील भी कहते हैं। झील के बारे में बताते हैं कि इसकी सतह मौसम के अनुसार अपना रंग बदलती रहती है। हमारे स्थानीय सहयोगी ने बताया कि सर्दी के दिनों में यह पूरी तरह जम जाती है और स्थानीय लोग और जानवर इसके ऊपर मस्ती करते हैं। झीले के अंडे के आकार में चारों ओर से पहाड़ियों से घिरी हुई है। झील के पास याक लिए कुछ स्थानीय नागरिक खड़े रहते हैं। याक पर बैठकर तस्वीरें ले सकते हैं।।


नाथू ला के पास, ऊपर सीमा चौकी के भवन

सोमगो झील के किनारे

सिद्धेश्वर धामचार धाम, 12 ज्योतिर्लिंग
अगर जवां दिनों में ही आपको चार धाम और बारह ज्योतिर्लिंगों के एक साथ दर्शन हो जाएं तो। हम तो कहेंगे, इससे बेहतर क्या हो सकता है। तो सिक्कम जाएं तो चारों धामों का दर्शन जरूर किया जाए। सिक्किम सरकार के ग्रामीण प्रंबधन और विकास विभाग ने यह धार्मिक पर्यटकों के लिए यह भव्य स्थान तैयार किया है। राज्य के दक्षिण हिस्से में बसे खूबसूरत नामची कस्बे से लगभग तीन-चार किलोमीटर की दूरी पर सोलोफाक पर एक पहाड़ी पर सिद्धेश्वर धाम के रूप में चार धाम और बारह ज्योतिर्लिंगों की भव्य भव्य रेप्लिका तैयार की गई हैं। लगभग छह साल में 2011 में बनकर तैयार हुए इस धाम का खास आकर्षण हैं महादेव की लगभग सौ फीट ऊंची प्रतिमा। प्रतिमा के गर्भगृह में महादेव से जुड़ी पौराणिक कथाओं को चित्रों के साथ दीवारों पर उकेरा गया है। चारों धामों के मंदिरों को हूबहू मूल शैली में तैयार किया गया है। महादेव की प्रतिमा के चारों ओर बारह ज्योतिर्लिंग स्थापित हैं। मंदिरों में पूजा करवाने के लिए पुजारी मौजूद हैं। और हां, सिद्धेश्वर में प्रवेश के लिए शुल्क भी तय किया है, प्रति व्यक्ति पचास रुपए। मंदिर से सूदूर राज्य के उत्तर में चमकती कंचनजंगा की पहाड़ियों का नजारा लिया जा सकता है। यहां राज्य के हर हिस्से से हिंदु और बौद्ध मत के श्रद्धालुओं को देखा जा सकता है। हमने भी चारों धामों और बारह ज्योतिर्लिंगों का भरपूर दर्शन किया। मंदिर के नीचे दो शुद्ध शाकाहारी भोजनालय हैं। मंदिर से शुद्ध देशी घी में तैयार लड्डू का प्रसाद भी लिया जा सकता है।
अगर पहाड़ में आप रास्ता भटक गए हैं, जो चिंता करने की जरूरत नहीं है। पहाड़ में सभी रास्ते आखिर में एक मुख्य रास्ते में मिल जाते हैं। और इस बहाने आपको पहाड़ की नई विविधताओं से रूबरू होने का एक अनचाहा मौका मिलेगा। सिद्धेश्वर तक जाने के लिए हमें भी नामची की अनचाही सुंदरता देखने को मिली। पहाड़ियों में जगह-जगह फूटते दूधिया झरने और विशाल पेड़ और लताएं। पहाड़ियों में झरनों से कटती सड़कों को पार करना सबसे मुश्किल होता है। खासकर उस स्थान पर जहां दूसरी ओर झरने का पानी गहरी खाइयों में गिर रहा हो। लेकिन यहां वाहन चलाने वाले ज्यादातर ड्राइवर अनुभवी होते हैं। उन्हें मालूम होता है कि दूसरी गाड़ियों को जाने देने के लिए कहां रूकना है। दिशा का ज्ञान पहाड़ में सिर्फ सूरज देवता ही करवा सकते हैं। लेकिन हमें शुक्रिया कहना चाहिए उन लोगों का जिन्होंने पहाड़ों में राह बनाने की योजना बनाई और सड़के बनवाई।

चार धाम में विशाल शिव प्रतिमा

विशाल शिव प्रतिमा के सामने बैठे नंदी
चार धाम में शिव प्रतिमा के पीछे


अलविदा पहाड़। अलविदा सिक्किम। अलविदा महादेव।  

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(यात्रा श्री प्रणेश जी के सहयोग से 2 से 6 सितंबर के बीच जोगबनी से नाथुला तक)
(यात्रा में सहयात्री प्रणेशजी, लीलि भाभी, प्रेरणा, प्रशंसा, जलज, तनव और वांची)