Saturday, February 27, 2016

उन दिनों

उन दिनों
-    मुरारी गुप्ता



हाथों में लिपटी हुई चिकनी मिट्टी
कि महकते हुए शरबतों की दुकानें
चाक से उतरते दीयों की कतारें
दीयों से उठते खूशबू के बफारें
जेठ महीने की तपिस दुपहरी
कि दूर शहर से आई बर्फ की दुकानें
सिर पर साफा हाथों में भोपू
एक टेर से जी मचल उठता सबका
हरे, पीले, नीले चटक लाल गोले
सभी को चखना सभी को चखाना
चवन्नी का झगड़ा, अठन्नी का रोना
बड़ी मुश्किलों से बाराना होना।
होली का मेला, मेले में चूरण
चंदिया, खील, लड्डू, पपड़ी की दुकानें
लपलपाती नजरें, पर पैसे का रोना
यारों से उधारी, फिर कभी न चुकाना।
बारिश का पानी, टपकती दीवारें
टीन की चादर, चूल्हें की धुआएं
भीगे उपले गीली लकड़ियां
कैसे जलेगा जाने शाम को चूल्हा
मां की पेशानी पर चिंता का होना।
बेफिकरे हम बारिश में छपछप
शाम को आते घर लौटकर तो
मां कहां से जाने रोटी तोड़ लाती
करौंजे का अचार बथुए की भाजी
हमें खिलाती, आखिर में खाती।
टटोलें जरा तो, अंतर को यारां
क्या जिंदा है मां दिल में हमारे
वो नाजुक से लम्हे, हसीं पल सारे
घर के आंगन की मिट्टी मे लिपटी
शरारत की बातें, बारिश की रातें
मां के दो-चार कदम भी मिलेंगे
दिल पे पड़ी रेत हटाकर मिलेंगे
चलो उन लम्हों की वादियों में
आज फिर से जी लें जरा।

27 फरवरी 2016





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